सोमवार, 19 जुलाई 2010

ऋतुओं के स्वागत का त्यौहार- हरेला


उत्तराखण्ड की संस्कृति की समृद्धता के विस्तार का कोई अन्त नहीं है, हमारे पुरखों ने सालों पहले जो तीज-त्यौहार और सामान्य जीवन के जो नियम बनाये, उनमें उन्होंने व्यवहारिकता और विज्ञान का भरपूर उपयोग किया था। इसी को चरितार्थ करता उत्तराखण्ड का एक लोक त्यौहार है-हरेला
हरेले का पर्व हमें नई ऋतु के शुरु होने की सूचना देता है, उत्तराखण्ड में मुख्यतः तीन ऋतुयें होती हैं- शीत, ग्रीष्म और वर्षा। यह त्यौहार हिन्दी सौर पंचांग की तिथियों के अनुसार मनाये जाते हैं, शीत ऋतु की शुरुआत आश्विन मास से होती है, सो आश्विन मास की दशमी को हरेला मनाया जाता है। ग्रीष्म ऋतु की शुरुआत चैत्र मास से होती है, सो चैत्र मास की नवमी को हरेला मनाया जाता है। इसी प्रकार से वर्षा ऋतु की शुरुआत श्रावण (सावन) माह से होती है, इसलिये एक गते, श्रावण को हरेला मनाया जाता है। किसी भी ऋतु की सूचना को सुगम बनाने और कृषि प्रधान क्षेत्र होने के कारण ऋतुओं का स्वागत करने की परम्परा बनी होगी।
उत्तराखण्ड में देवाधिदेव महादेव शिव की विशेष अनुकम्पा भी है और इस क्षेत्र में उनका वास और ससुराल (हरिद्वार तथा हिमालय) होने के कारण यहां के लोगों में उनके प्रति विशेष श्रद्धा और आदर का भाव रहता है। इसलिये श्रावण मास के हरेले का महत्व भी इस क्षेत्र में विशेष ही होता है। श्रावण मास के हरेले के दिन शिव-परिवार की मूर्तियां भी गढ़ी जाती हैं, जिन्हें डिकारे कहा जाता है। शुद्ध मिट्टी की आकृतियों को प्राकृतिक रंगों से शिव-परिवार की प्रतिमाओं का आकार दिया जाता है और इस दिन उनकी पूजा की जाती है।
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घर के भीतर बोया गया हरेला
हरेला शब्द का स्रोत हरियाली से है, पूर्व में इस क्षेत्र का मुख्य कार्य कृषि होने के कारण इस पर्व का महत्व यहां के लिये विशेष रहा है। हरेले के पर्व से नौ दिन पहले घर के भीतर स्थित मन्दिर में या ग्राम के मन्दिर के भीतर सात प्रकार के अन्न (जौ, गेहूं, मक्का, गहत, सरसों, उड़द और भट्ट) को रिंगाल की टोकरी में रोपित कर दिया जाता है। इससे लिये एक विशेष प्रक्रिया अपनाई जाती है, पहले रिंगाल की टोकरी में एक परत मिट्टी की बिछाई जाती है, फिर इसमें बीज डाले जाते हैं। उसके पश्चात फिर से मिट्टी डाली जाती है, फिर से बीज डाले जाते हैं, यही प्रक्रिया ५-६ बार अपनाई जाती है। इसे सूर्य की सीधी रोशनी से बचाया जाता है और प्रतिदिन सुबह पानी से सींचा जाता है। ९ वें दिन इनकी पाती (एक स्थानीय वृक्ष) की टहनी से गुड़ाई की जाती है और दसवें यानि कि हरेले के दिन इसे काटा जाता है। काटने के बाद गृह स्वामी द्वारा इसे तिलक-चन्दन-अक्षत से अभिमंत्रित (“रोग, शोक निवारणार्थ, प्राण रक्षक वनस्पते, इदा गच्छ नमस्तेस्तु हर देव नमोस्तुते” मन्त्र द्वारा) किया जाता है, जिसे हरेला पतीसना कहा जाता है। उसके बाद इसे देवता को अर्पित किया जाता है, तत्पश्चात घर की बुजुर्ग महिला सभी सदस्यों को हरेला लगाती हैं। लगाने का अर्थ यह है कि हरेला सबसे पहले पैरो, फिर घुटने, फिर कन्धे और अन्त में सिर में रखा जाता है और आशीर्वाद स्वरुप यह पंक्तियां कहीं जाती हैं।
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हरेले की थाली

जी रये, जागि रये
धरती जस आगव, आकाश जस चाकव है जये
सूर्ज जस तराण, स्यावे जसि बुद्धि हो
दूब जस फलिये,
सिल पिसि भात खाये, जांठि टेकि झाड़ जाये।{अर्थात-हरियाला तुझे मिले, जीते रहो, जागरूक रहो, पृथ्वी के समान धैर्यवान,आकाश के समान प्रशस्त (उदार) बनो, सूर्य के समान त्राण, सियार के समान बुद्धि हो, दूर्वा के तृणों के समान पनपो,इतने दीर्घायु हो कि (दंतहीन) तुम्हें भात भी पीस कर खाना पड़े और शौच जाने के लिए भी लाठी का उपयोग करना पड़े।}
इस पूजन के बाद परिवार के सभी लोग साथ में बैठकर पकवानों का आनन्द उठाते हैं, इस दिन विशेष रुप से उड़द दाल के बड़े, पुये, खीर आदि बनाये जाने का प्रावधान है। घर में उपस्थित सभी सदस्यों को हरेला लगाया जाता है, साथ ही देश-परदेश में रह रहे अपने रिश्तेदारो-नातेदारों को भी अक्षत-चन्दन-पिठ्यां के साथ हरेला डाक से भेजने की परम्परा है।
चैत्र मास के प्रथम दिन हरेला बोया जाता है और नवमी को काटा जाता है। श्रावण मास लगने से नौ दिन पहले आषाढ़ मास में बोया जाता है और १० दिन बाद काटा  जाता है और आश्विन मास में नवरात्र के पहले दिन बोया जाता है और दशहरे  के दिन काटा जाता है। हरेला घर मे सुख, समृद्धि व शान्ति के लिए बोया व काटा जाता है। हरेला अच्छी कृषि का सूचक है, हरेला इस कामना के साथ बोया जाता है कि इस साल फसलो को नुकसान ना हो। हरेले के साथ जुड़ी ये मान्यता भी है कि जिसका हरेला जितना बडा होगा उसे कृषि मे उतना ही फायदा होगा।
वैसे तो हरेला घर-घर में बोया जाता है, लेकिन किसी-किसी गांव में हरेला पर्व को सामूहिक रुप से द्याप्ता थान (स्थानीय ग्राम देवता) में भी मनाये जाने का प्रावधान है। मन्दिर में हरेला बोया जाता है और पुजारी द्वारा सभी को आशीर्वाद स्वरुप हरेले के तिनके प्रदान किय जाते हैं। यह भी परम्परा है कि यदि हरेले के दिन किसी परिवार में किसी की मृत्यु हो जाये तो जब तक हरेले के दिन उस घर में किसी का जन्म न हो जाये, तब तक हरेला बोया नहीं जाता है। एक छूट भी है कि यदि परिवार में किसी की गाय ने इस दिन बच्चा दे दिया तो भी हरेला बोया जायेगा।
उत्तराखण्ड में हरेले के त्यौहार को “वृक्षारोपण त्यौहार” के रुप में भी मनाया जाता है। श्रावण मास के हरेला त्यौहार के दिन घर में हरेला पूजे जाने के उपरान्त एक-एक पेड़ या पौधा अनिवार्य रुप से लगाये जाने की भी परम्परा है। माना जाता है कि इस हरेले के त्यौहार के दिन किसी भी पेड़ की टहनी को मिट्टी में रोपित कर दिया जाय, पांच दिन बाद उसमें जड़े निकल आती हैं और यह पेड़ हमेशा जीवित रहता है।

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