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सोमवार, 30 अगस्त 2010

नंदादेवी मेला-अल्मोड़ा

समूचे पर्वतीय क्षेत्र में हिमालय की पुत्री नंदा का बड़ा सम्मान है । उत्तराखंड में भी नंदादेवी के अनेकानेक मंदिर हैं । यहाँ की अनेक नदियाँ, पर्वत श्रंखलायें, पहाड़ और नगर नंदा के नाम पर है । नंदादेवी, नंदाकोट, नंदाभनार, नंदाघूँघट, नंदाघुँटी, नंदाकिनी और नंदप्रयाग जैसे अनेक पर्वत चोटियाँ, नदियाँ तथा स्थल नंदा को प्राप्त धार्मिक महत्व को दर्शाते हैं । नंदा के सम्मान में कुमाऊँ और गढ़वाल में अनेक स्थानों पर मेले लगते हैं । भारत के सर्वोच्य शिखरों में भी नंदादेवी की शिखर श्रंखला अग्रणीय है लेकिन कुमाऊँ और गढ़वाल वासियों के लिए नंदादेवी शिखर केवल पहाड़ न होकर एक जीवन्त रिश्ता है । इस पर्वत की वासी देवी नंदा को क्षेत्र के लोग बहिन-बेटी मानते आये हैं । शायद ही किसी पहाड़ से किसी देश के वासियों का इतना जीवन्त रिश्ता हो जितना नंदादेवी से इस क्षेत्र के लोगों का है ।

कुमाऊँ मंड़ल के अतिरिक्त भी नंदादेवी समूचे गढ़वाल और हिमालय के अन्य भागों में जन सामान्य की लोकप्रिय देवी हैं । नंदा की उपासना प्राचीन काल से ही किये जाने के प्रमाण धार्मिक ग्रंथों, उपनिषद और पुराणों में मिलते हैं । रुप मंडन में पार्वती को गौरी के छ: रुपों में एक बताया गया है । भगवती की ६ अंगभूता देवियों में नंदा भी एक है । नंदा को नवदुर्गाओं में से भी एक बताया गया है । भविष्य पुराण में जिन दुर्गाओं का उल्लेख है उनमें महालक्ष्मी, नंदा, क्षेमकरी, शिवदूती, महाटूँडा, भ्रामरी, चंद्रमंडला, रेवती और हरसिद्धी हैं । शिवपुराण में वर्णित नंदा तीर्थ वास्तव में कूर्माचल ही है । शक्ति के रुप में नंदा ही सारे हिमालय में पूजित हैं ।

नंदा के इस शक्ति रुप की पूजा गढ़वाल में करुली, कसोली, नरोना, हिंडोली, तल्ली दसोली, सिमली, तल्ली धूरी, नौटी, चांदपुर, गैड़लोहवा आदि स्थानों में होती है । गढ़वाल में राज जात यात्रा का आयोजन भी नंदा के सम्मान में होता है ।
कुमाऊँ में अल्मोड़ा, रणचूला, डंगोली, बदियाकोट, सोराग, कर्मी, पौथी, चिल्ठा, सरमूल आदि में नंदा के मंदिर हैं ।अनेक स्थानों पर नंदा के सम्मान में मेलों के रुप में समारोह आयोजित होते हैं । नंदाष्टमी को कोट की माई का मेला और नैतीताल में नंदादेवी मेला अपनी सम्पन्न लोक विरासत के कारण कुछ अलग ही छटा लिये होते हैं परन्तु अल्मोड़ा नगर के मध्य में स्थित ऐतिहासिकता नंदादेवी मंदिर में प्रतिवर्ष भाद्र मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को लगने वाले मेले की रौनक ही कुछ अलग है ।

अल्मोड़ा में नंदादेवी के मेले का इतिहास यद्यपि अधिक ज्ञात नहीं है तथापि माना जाता है कि राजा बाज बहादुर चंद (सन् १६३८-७८) ही नंदा की प्रतिमा को गढ़वाल से उठाकर अल्मोड़ा लाये थे । इस विग्रह को वर्तमान में कचहरी स्थित मल्ला महल में स्थापित किया गया । बाद में कुमाऊँ के तत्कालीन कमिश्नर ट्रेल ने नंदा की प्रतिमा को वर्तमान से दीप चंदेश्वर मंदिर में स्थापित करवाया था ।

अल्मोड़ा शहर सोलहवीं शती के छटे दशक के आसपास चंद राजाओं की राजधानी के रुप में विकसित किया गया था । यह मेला चंद वंश की राज परम्पराओं से सम्बन्ध रखता है तथा लोक जगत के विविध पक्षों से जुड़ने में भी हिस्सेदारी करता है ।

पंचमी तिथि से प्रारम्भ मेले के अवसर पर दो भव्य देवी प्रतिमायें बनायी जाती हैं । पंचमी की रात्रि से ही जागर भी प्रारंभ होती है । यह प्रतिमायें कदली स्तम्भ से निर्मित की जाती हैं । नंदा की प्रतिमा का स्वरुप उत्तराखंड की सबसे ऊँची चोटी नंदादेवी के सद्वश बनाया जाता है । स्कंद पुराण के मानस खंड में बताया गया है कि नंदा पर्वत के शीर्ष पर नंदादेवी का वास है । कुछ लोग यह भी मानते हैं कि नंदादेवी प्रतिमाओं का निर्माण कहीं न कहीं तंत्र जैसी जटिल प्रक्रियाओं से सम्बन्ध रखता है । भगवती नंदा की पूजा तारा शक्ति के रुप में षोडशोपचार, पूजन, यज्ञ और बलिदान से की जाती है । सम्भवत: यह मातृ-शक्ति के प्रति आभार प्रदर्शन है जिसकी कृपा से राजा बाज बहादुर चंद को युद्ध में विजयी होने का गौरव प्राप्त हुआ । षष्ठी के दिन गोधूली बेला में केले के पोड़ों का चयन विशिष्ट प्रक्रिया और विधि-विधान के साथ किया जाता है ।

षष्ठी के दिन पुजारी गोधूली के समय चन्दन, अक्षत, पूजन का सामान तथा लाल एवं श्वेत वस्र लेकर केले के झुरमुटों के पास जाता है । धूप-दीप जलाकर पूजन के बाद अक्षत मुट्ठी में लेकर कदली स्तम्भ की और फेंके जाते हैं । जो स्तम्भ पहले हिलता है उससे नन्दा बनायी जाती है । जो दूसरा हिलता है उससे सुनन्दा तथा तीसरे से देवी शक्तियों के हाथ पैर बनाये जाते हैं । कुछ विद्धान मानते हैं कि युगल नन्दा प्रतिमायें नील सरस्वती एवं अनिरुद्ध सरस्वती की हैं । पूजन के अवसर पर नन्दा का आह्मवान 'महिषासुर मर्दिनी' के रुप में किया जाता है । सप्तमी के दिन झुंड से स्तम्भों को काटकर लाया जाता है । इसी दिन कदली स्तम्भों की पहले चंदवंशीय कुँवर या उनके प्रतिनिधि पूजन करते है । उसके बाद मंदिर के अन्दर प्रतिमाओं का निर्माण होता है । प्रतिमा निर्माण मध्य रात्रि से पूर्व तक पूरा हो जाता है । मध्य रात्रि में इन प्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा व तत्सम्बन्धी पूजा सम्पन्न होती है ।

मुख्य मेला अष्टमी को प्रारंभ होता है । इस दिन ब्रह्ममुहूर्त से ही मांगलिक परिधानों में सजी संवरी महिलायें भगवती पूजन के लिए मंदिर में आना प्रारंभ कर देती हैं । दिन भर भगवती पूजन और बलिदान चलते रहते हैं । अष्टमी की रात्रि को परम्परागत चली आ रही मुख्य पूजा चंदवंशीय प्रतिनिधियों द्वारा सम्पन्न कर बलिदान किये जाते हैं । मेले के अन्तिम दिन परम्परागत पूजन के बाद भैंसे की भी बलि दी जाती है । अन्त में डोला उठता है जिसमें दोनों देवी विग्रह रखे जाते हैं । नगर भ्रमण के समय पुराने महल ड्योढ़ी पोखर से भी महिलायें डोले का पूजन करती हैं । अन्त में नगर के समीप स्थित एक कुँड में देवी प्रतिमाओं का विसर्जन किया जाता है ।

मेले के अवसर पर कुमाऊँ की लोक गाथाओं को लय देकर गाने वाले गायक 'जगरिये' मंदिर में आकर नंदा की गाथा का गायन करते हैं । मेला तीन दिन या अधिक भी चलता है । इस दौरान लोक गायकों और लोक नर्तको की अनगिनत टोलियाँ नंदा देवी मंदिर प्राँगन और बाजार में आसन जमा लेती हैं । झोड़े, छपेली, छोलिया जैसे नृत्य हुड़के की थाप पर सम्मोहन की सीमा तक ले जाते हैं । कहा जाता है कि कुमाऊँ की संस्कृति को समझने के लिए नंदादेवी मेला देखना जरुरी है । मेले का एक अन्य आकर्षण परम्परागत गायकी में प्रश्नोत्तर करने वाले गायक हैं, जिन्हें बैरिये कहते हैं । वे काफी सँख्या में इस मेले में अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं । अब मेले में सरकारी स्टॉल भी लगने लगे हैं ।


मेले

कुमाऊँ की संस्कृति यहाँ के मेलों में समाहित है । रंगीले कुमाऊँ के मेलों में ही यहाँ का सांस्कृतिक स्वरुप निखरता है । धर्म, संस्कृति और कला के व्यापक सामंजस्य के कारण इस अंचल में मनाये जाने वाले उत्सवों का स्वरुप बेहद कलात्मक होता है । छोटे-बड़े सभी पर्वों�, आयोजनों और मेलों पर शिल्प की किसी न किसी विद्या का दर्शन अवश्य होता है । कुमाऊँनी भाषा में मेलों को कौतिक कहा जाता है । कुछ मेले देवताओं के सम्मान में आयोजित होते हैं तो कुछ व्यापारिक दृष्टि से अपना महत्व रखते हुए भी धार्मिक पक्ष को पुष्ट अवश्य करते है । पूरे अंचल में स्थान-स्थान पर पचास से अधिक मेले आयोजित होते हैं जिनमें यहाँ का लोक जीवन, लोक नृत्य, गीत एवं परम्पराओं की भागीदारी सुनिश्चित होती है । साथ ही यह धारणा भी पुष्टि होती है कि अन्य भागों में मेलों, उत्सवों का ताना बाना भले ही टूटा हो, यह अंचल तो आम जन की भागीदारी से मनाये जा रहे मेलों से निरन्तर समद्ध हो रहा है ।

मेला चारे जिस स्थान पर भी आयोजित हो रहा हो, उसका परिवेश कैसा भी हो, उसका परिवेश कैसा भी हो, अवसर ऐतिहासिक हो, सांस्कृतिक हो, धार्मिक हो या फिर अन्य कोई उल्लास से चहकते ग्रामीणों को आज भी अपनी संस्कृति, अपने लोग, अपना रंग, अपनी उमंग, अपना परिवार इन्हीं मेलों में वापस मिलते हैं । सुदूर अंचलों में तो बरसों का बिछोह लिये लोग मिलन का अवसर मेलों में ही तलाशते हैं ।

कुमाऊँ मंडल के तीनों जिलों में सम्पन्न होने वाले कुछ प्रसिद्ध मेले इस प्रकार हैं - 

उत्तरांचल कुमाऊँ के पर्वोत्सव व त्यौहार

जिन तिथियों में स्नान-दानादि कर्म होते हैं, वे पर्व कहलाती हैं। जिनमें आमोद-प्रमोद, हर्ष-आनंद मानाया जाता है, वे उत्सव कहे जाते हैं। यथा होली-दिवाली के त्यौहार उत्सव हैं। संक्रान्ति, पूर्णिमा, गंगा-दशहरा आदि पर्व हैं। जन्माष्टमी, शिवरात्रि आदि व्रत हैं। पर्वोत्सव अथवा व्रतोत्सव सभी त्यौहार कहलाते हैं। कुमाऊँ में निम्नलिखित त्यौहार माने जाते हैं।

१. संवप्सर प्रतिपदा
चैत शुक्ल पड़वा वर्ष के आरंभ में होती है। इस दिन कहीं-कहीं नवदुर्गा की मूर्ति स्थापित की जाती है। हरेला भी बोया जाता है। देवी के उपासक नवरात्र-व्रत करते हैं। चंडी का पाठ होता है। संवप्सर प्रतिपदा को पंडितों से पंचांग का शुभाशुभ फल सुनते हैं। 

२. चैत्राष्मी
को देवी-भक्त व्रत तथा पाठ पूजा करते हैं।

३. रामनौमी
विधवा स्रियाँ तथा राम-भक्त लोग व्रत-पूजन स्वयं करते तथा पुरोहितों व ब्राह्मणों द्वारा कराते हैं।

४. दशाई या दशहरा
चैत सुदी दसमी को देवताओं में हरेला चढ़ाकर स्वयं सिर पर चढ़ाते हैं। नवरात्रि के व्रत को पूर्ण करके दान-दक्षिणा, ब्रह्म-भोज भी कराया जाता है।


५. विषुवती उर्फ विखौती
नागरिक द्विज लोगों में इस दिन साधारण पर्व संक्रान्ति का माना जाता है। यह संक्रान्ति मेष भी कही जाती हैं, पर देहाती ब्राह्मण, क्षत्रियों तथा शिल्पकारों में पूजन, मिष्ठान, पानादि से अच्छा उत्सव इस दिन मनाया जाता है। कई स्थानों में मेले भी होते हैं। हुड़का बजाकर पहाड़ी गाने गाये जाते हैं, तथा लोग नाचते हैं। यह यहाँ की सूल निवासी जातियों के समय का प्राचीन उत्सव है। इस दिन मछली भी मारते हैं, और बड़े भी खाते हैं। जितने बड़े खाये, उतने ताले भी ड़ाले जाते रहे हैं। किन्तु अब ताले ड़ालने का रिवाज कम हो गया है (एक गरम लोहे की सलाख से पेट को दागना 'ताला ड़ालना' कहा जाता है ।) इस दिन थल द्वाराहाट स्याल्दे, चौगड़ तथा लोहाखाय में मेले होते हैं।

६. बैसाखी पूर्णिमा
स्नान-दानादि की पर्वी मानी जाती है। गंगा सप्तमी भी पुण्य तिथि गिनी जाती है।

७. नृसिंहचतुर्दशी
इसका व्रत वैशाख सुदी १४ को हरिभक्त लोग करते हैं।

८. बट-सावित्री
३० - स्रियों का व्रत होता हैं। सती सावित्री तथा सत्यवान की कथा सुनी जाती है। बट-वृक्ष के तले मृतक सत्यवान, यमराज तथा सती सिरोमणि सावित्री देवी के चित्र लिखकर इनकी पूजा का जाती है। द्वादश ग्रंथ के डोर की प्रतिष्ठा करके स्रियाँ गले में बाँधती है।

९. दशहरा
ज्येष्ठ सुदी १० को गंगा दशहरा मनाया जाता है। यह भारत-व्यापी पर्व है। गंगा-स्नान, शरबत-दान इस दिन होता है। परन्तु कुमाऊँ में "अगस्व्यश्च पुलस्व्यश्च" इत्यादि तीन श्लोक एक कागज के पर्चे में लिखकर प्रत्येक घर में ब्राह्मणों के द्वारा चिपकाये जाते हैं। ब्राह्मणों को स्वल्प दक्षिणा पुरस्कार में दी जाती है। वज्रपात, बिजली आदि का भय इस 'दशहरे के पत्र' के लगाने से नहीं होता, यह माना जाता है।
१०. हरेला, हरियाला या कर्क-संक्रान्ति
श्रावण की संक्रान्ति से १०-११ दिन पूर्व बंस-पात्रादि में मिट्टी डालकर क्यारी बना धान, मक्का, उड़द इत्यादि वर्षा काल में उत्पन्न होने वाले अन्न बोये जाते हैं, इसे हरियाला कहते हैं। इसे धूप में नहीं रखते। इसे पौधों का रंग पीला हो जाता है।

(क) हरकाली महोत्सव - गौरी महेश्वर, गणेश तथा कार्कित्तकेय की मिट्टी को मूर्तियाँ बना उनमें रंग लगा मासान्त की रात्रि को हरियाले की क्यारी में विविध फल-फूल तथा पकवान व मिष्ठान से पूजा की जाती है। दूसरे दिन उत्तरांग पूजन का हरेला सिर पर रखा जाता है। बहन-बोटियाँ टीका, तिलक लगाकर हरेला सिर पर चढ़ाती है। उनको भेंट दी जाती है। यह हरेले का टीका कहलाता है।

(ख) यह हरियाला अन्व्यज पर्यन्त सभी वर्ण और जाति के लोगों में बोया जाता है। संक्रान्ति के दिन अपने-अपने देवताओं पर चढ़ा तब अपने सिर में चढ़ाते हैं। ग्राम-देवताओं की धूनी मठ में, जो "जागा" कहलाते हैं, ग्रामवासी लोग हरु, शैम, गोल्ल आदि अपने ग्राम व कुल-देवता की पूजा रोट-भेंट, धूप-दीप, नैवेध, बलि इत्यादि चढ़ाकर करते हैं। प्रत्येक ग्राम की सीमा पर यह (जागा) मंदिर बने होते हैं। यहाँ २२ रोज तक बैसी (बाईसी) का अनुष्ठान, नवरात्रियों में नवरात्र-अनुष्ठान ग्राम-देवताओं का किया जाता है। हरियाला चढ़ाकर इस दिन पूजा होती है। बैसी अर्थात् बाईसी का व्रत करने वाले इस दिन से २२ रोज तक व्रत और त्रिकालस्नान और एक बार भोजन करके ब्रह्मचर्यपूर्वक साधु-वृति में रहते हैं। दिन-रात घर में नहीं जाते। जागा के सठ में देवता का ध्यान-पूजन, धूनी की सेवा करते हैं। रात्रि में देवता का जागा अथवा जागर द्वारा आवाहन किया जाता है। बहुसंख्यक दर्शक यात्री देव-दर्शानार्थ जाते हैं। धन, पुत्र आरोग्य आदि मनोकामना का आशीर्वाद माँगते हैं।

यह मूल-निवासी पूर्वकालीन जातियों के समय की प्राचीन पूजा-पद्धति है, क्योंकि यह रीति कुमाऊँ से अन्यत्र नहीं देखी जाती।

११. हैरिशयनी
यह प्रसिद्ध व्रत है। चातुर्मात्स्य नियम इस दिन से स्रियाँ धारण करती हैं। हरि-बोधिनी का व्रत पूर्ण होते है। 

१२. श्रावणी १५
इसे रक्षाबंधन भी कहते हैं। इस दिन यजुर्वेदी द्विजों का उपाकर्म होता है। उत्सर्जन, स्नान-विधि, ॠषि-तपंणादि करके नवीन यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। रक्षा-बंधने भी इसी दिन करते हैं। ब्राह्मणों का यह सर्वोपरि त्यौहार माना जाता है। वृत्तिवान् ब्राह्मण अपने यजमानों को यज्ञोपवीत तथा रक्षा देकर दक्षिणा लेते हैं। 

१३. सिंह या घृत-संक्रान्ति
सिंह संक्रान्ति को ओलगिया भी कहते हैं। पहले चंद-राज्य के समय अपनी कारीगरी तथा दस्ताकारी की चीजों को दिखाकर शिल्पज्ञ लोग इस दिन पुरस्कार पाते थे, तथा अन्य लोग भी फल-फूल, साग-भाजी, दही-दुग्ध, मिष्ठान तथा नाना प्रकार की उत्तमोत्तम चीज राज-दरबार में ले जाते थे, तथा मान्य पुरुषों की भेंट में भी ले जाते थे। यह ओलग की प्रथा कहलाती थी। जिस प्रकार बड़े दिन को अँग्रेजों को डाली देने की प्रथा है, वही प्रथा यह भी थी। अब भी यह त्यौहार थोड़-बहुत मनाया जाता है। इसीलिए यह संक्रान्ति ओलगिया भी कहलाती है। इसे धृत या ध्यू संक्रान्ति कहते हैं। इस दिन (बेड़िया) रोटियों के साथ खूब घी खाने का भी रिवाज है। यह भी स्थानीय त्यौहार है।

१४. संकष्ट चतुर्थी
भाद्रकृष्ण ४ को संकष्टहर गणेशजी का व्रत तथा पूजन। चंद्रोदय होने पर चन्देराध्रय-दान देकर भोजन होता है। यह व्रत प्राय: स्रियाँ करती हैं। 

१५. जन्माष्टमी
यह भारत व्यापी त्यौहार है। भगवान श्रीकृष्ण का जन्म-दिवस सानंद मनाया जाता है। बहुत से लोग व्रत करते हैं। डोल बनाते हैं। पट्टों में कृष्ण-चरित्र लिखे जाते हैं। उनकी पूजा हती है। कोई फलाहार, कोई निराहार व्रत करते हैं। स्मार्त पहले दिन तथा प्राय: वैष्णव दूसरे दिन व्रत रखते हैं।

१६. हरियाली व्रत
भाद्र कृष्ण तृतीया का यह व्रत होता है। स्रियाँ सौभाग्य के लिए व्रत रखती हैं । सामवेदी लोगों का इस दिन हस्त नक्षत्र में उपाकर्म होता है। 

१७. गणेष चतुर्थी
भाद्र शुल्क ४ को गणेशजी का व्रत-पूजन होता है। श्री कृष्ण भगवान को इस दिन चन्द्रमा का दर्शन करने से मणि की चोरी का कलंक लगा था। अत: इस दिन चन्द्रदर्शन वर्जित है। 

१८. ॠषिपंचमी
इसे नागपंचमी या पर्वती में "बिरुड़ पंचमी" भी कहते हैं। भाद्र शुक्ल पंचमी को स्रियाँ व्रत करती हैं। सप्त ॠषियों का अरुन्धती-सहित पूजन होता है। यों नागपंचमी श्रावण शुल्क में होती है, पर इसी दिन करने का नियम चल पड़ा है। इस दिन नागों की पूजा होती है। इस दिन नागों की पूजा होती है। इस दिन स्रियाँ प्राय: कच्चा अन्न खाती है, और हल से उत्पन्न अन्न का भी निषेध है। 

१९. अमुक्ताभरण सपतमी
भाद्र शुल्क सप्तमी को स्रियों का प्रधान व्रत होता है। सप्त ग्रन्थियुक्त डोर के साथ उमा-महेश्वर का पूजन कर स्रियाँ डोर के धारण करती हैं।

२०. दूर्वाष्टमी
भाद्र शुल्क अष्टमी को यह व्रत होता है। सुवर्ण, रौव्य, रेशम इत्यादि की दूर्वा बनाकर पूजा-प्रतिष्ठा कर स्रियाँ उसे धारण करती है। सौभाग्य-संतति प्राप्ति के लिए दूर्वादेवी से प्रार्थना की जाती है। इस दिन भी अग्नि-पक्क अन्न खाना मना है। 

२१. नन्दाषटमी
भाद्र शुल्क अष्टमी से लक्ष्मी पूजा-व्रत आश्विन कृष्ण ८ तक अनेक उपासक लोग करते हैं। नंदादेवी का पूजन चन्द-राजाओं के दरबार में परंपरा से बड़ी धूम-धाम से होता आया है। यह कुमाऊँ के जातीय उत्सवों से एक है। नंदा कुमाऊँ की रणचंड़ी है। यहाँ लड़ाई का मूल-मंत्र नंदादेवी की जय है। इसकी पूजा में भैंसे तथा बकरे का बलिदान होता है। अल्मोड़ा में अब भी पूजा ठाट-बाट से होती है, और बड़ा मेला होता है। चन्द-वंश के अवतंस इसका पूजन करते हैं। नैनीताल में स्व. लाला मोतीराम साहजी ने यह मेला चलाया था। कप्यूर, रानीखेत तथा भवाली में भी मेले होते हैं। कुमाऊँ के राजाओं की यह कुल-देवी बताई जाती है।

२२. अनन्त चौदस-व्रत
भाद्र शुल्क चतुर्दशी को होता है। चतुर्दश-ग्रन्थि के ड़ोर की पूजा-प्रतिष्ठा करके इस अनन्त को स्री-पुरुष पहनते हैं। रोट को नैवेध लगता है। यह व्रत खास-खास लोग करते हैं।

२३. खतड़वा
कन्या-संक्रान्ति को फूल के झंड़े बनाकर बालक उत्सव मनाते हैं। "भैल्लो-भैल्लो" करके नाचते हैं। सूखी घास-फूस का 'खतड़वा' बनाकर होली के तुल्य जलाते हैं। ककड़ी, खीरा खाते हैं, तथा दूसरों पर मारते हैं। गढ़वाल-विजय की यादगार में यह उत्सव मनाना कहा जाता है। सरदार खतड़सिंह गढ़वाल के सेनापति थे, जो मारे गये।
२४. श्राद्ध
आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से अमावस्य-पर्यन्त क्षाद्ध पक्ष व पितृपक्ष कहलाता है। पिता की मृत्यु-तिथि को इस पक्ष में पार्वण श्राद्ध किया जाता है। मातृश्राद्ध केवल नवमी को होता है। अमावस्या को पितृ-विसर्जन की तिथि मानते हैं। तपंण करते हैं। सनातनधर्मी शिल्पकार हरिजन लोग भी इसी दिन श्राद्ध करते हैं। ब्राह्मणों में भात (चावल) के पिंड देने की रीति है। अन्य वर्ण जौ के आटे के पिंड बनाते हैं। ब्रह्मभोज के अतिरिक्त भाई-बांधव, अड़ोस-पड़ोस के लोगों को श्राद्ध में भोजन कराया जाता है। मृत पितरों की स्मृती का यह एक बड़ा पर्व माना जाता है।

२५. दुर्गोत्सव
आश्विन सुदी प्रतिपदा से दुर्गापूजन-उत्सव मनाया जाता है। इसे नवरात्र-व्रत भी कहते हैं। हरियाले की क्यारी बोई जाती है। दुर्गापाठ करते-कराते हैं। प्रतिदिन अथवा अष्टमी को घर-घर में दुर्गापाठ करते हैं। कई लोग नौ दिन व्रत रखते हैं। इस अष्टमी को महाष्टमी भी कहते हैं। इस दिन देवी-मंदिरों में बलिदान होता है। गाँवों में यत्र-तत्र 'जागर' लगते हैं। कहीं-कहीं भैंसे, बकरे खूब मारे जाते हैं।

२६. विजयादशमी
आश्विन शुल्क दशमी को कुमाऊँ में 'दसाई' कहते हैं। नवदुर्गाओं का विसर्जन इस दिन किया जाता है। देवी-दनताओं को हरेला चढ़ा, फिर तिलक लगाते तथा अपने सिर में हरेला रखते हैं। बहन-बेटियाँ भी तिलक (टीका) करती हैं। नवरात्रियों में बहुत स्थानों में रामलीलाएँ होती हैं। दशहरे का मेला होता हैं।

यह क्षत्रियों का प्रधान त्यौहार है। चंद-राज्य के समय अश्व-पूजा, गज-पूजा, शस्रास्र, छत्र, चामर, मुकुट आदि राज-चिन्हों की पूजा होती थी।

२७. कोजागर
आश्विन शुल्क पूर्णिमा को छोटी दीवाली मानी जाती है। स्रियाँ व्रत रखती हैं। रात्रि में लक्ष्मी-पूजा होती है। दीवाली जलाते हैं। पकवान, मिष्ठान नैवेध लगाकर खाते हैं। द्यूत की कुप्रथा का श्रीगणेश भी इसी दिन से प्रारंभ होता है।

२८. दीपोत्सव
कार्तिक कृष्ण ११ को हरिदीप, त्रयोदशी को यमदीप, चतुर्दशी को शिवदीप जलाया जाता है। तुलार्क पर्यन्त आकाश-दीप जलाने की प्रथा है। 

२९. नरक चतुर्दशी
चन्द्रोदय व्यापिनी चतुर्दशी के उषाकाल में तैलाभ्यंगपूर्वक तप्तोदक (गरम पानी) से स्नान करने की विधि तथा प्राचीन रीति है। हल्की मृत्तिका, अपामार्ग तथा कटुतुम्बी को सिर पर उतारा जाता है। साम्प्रत में छोटे-छोटे असंस्कारी बच्चों को नरहर स्नान कराके पुरानी र बरती जाती है। नरक यातना की निवृत्ति के निमित्त नरक चतुर्दशी स्नान होता है।

३०. दीपमालिका या दिवाली
कार्तिक कृष्ण ३० महालक्ष्मी-पूजा का भारत व्यापी त्यौहार है। सायंकाल में दीपमालिका (रोशनी या दीवाली) की जाती है। यह वैश्यों का मुख्य त्यौहार माना जाता है। लक्ष्मी का व्रत, पूजा और उपासना इसमें मुख्य है। जुये की कुप्रथा कुमाऊँ में खूब प्रचलित हैं। रावण को मारकर जब भगवान रामचंद्र अयोध्या लौटे थे, उसकी यादगार में यह उत्सव मनाया जाता है।

३१. यम द्वितीया
कार्तिक शुल्क २ को मनाई जाती है। भ्रातृ-टीका या भैया दूज नाम से प्रसिद्ध है। यमराज अपनी बहन यमुना के हाथ का भोजन इसी दिन ग्रहण करते है, ऐसी पौराणिक कथा है। अत: बहन के यहाँ भोजन करने की रीति प्रचलित है। भगिनी टीका भी करती है। चिउड़े सिर पर चढ़ाये जाते हैं। 'सिंङ्ल' एक प्रकार का पकवान विशेष इन दिनों बहुत बनाते हैं।

३२. गोवर्धन प्रतिपदा
कार्तिक शुक्ल १ को भगवान कृष्णचंद्र ने गोवर्धन-पर्वत उठाकर इन्द्र के कोप से गोकुल की रक्षा की थी। इन्द्र-मख के बदले गोवर्धन और गोधन की पूजा जारी की, तब से यह गौ-पूजा उत्मव होता है। गाय-बच्छियों को पुष्प-माला पहनाकर तिलक लगाते हैं। गो-घास देकर पूजा आरती करते हैं। खीर, माखन, दही, दूध का नैवेध लगता है। भगनान श्रीकृष्ण की भी पूजा होती है। इस दिन कहीं-कहीं जैसे पाटिया में 'बगवाल' भी होती है। 

३३. हरिबोधिनी ११
यह व्रत भी भारत व्यापी है। हरिशयनी को सोये हुए भगवान हरिबोधिनी को जगाते हैं। इस दिन व्रत होता है, तथा द्वादशी के दिन चातुर्मास्यके व्रतों का उद्यापन किया जाता है। 

३४. वैकुण्ठ १४
कार्तिक शुक्ल पक्ष में होती है, प्राय: विधवा स्रियाँ व हरिभक्त लोग इस दिन उपवास, व्रत करते हैं। गणानाथ में बड़ा मेला होता है। पुत्र-कामनावाली स्रियाँ रात-भर दोनों हाथों में दीपक लेकर खड़ी रहती है। 

३५. कार्तिकी पौर्णमासी
गंगा स्नान का पर्व माना जाता है। इस दिन गंगा-स्नान तथा वस्रदान का माहात्म्य समझा जाता है। 

३६. भैरवाष्टमी
मार्गशीर्ष कृष्ण ८ को काल भैरव की पूजा होती है। बड़े (भले) खाने का महात्म्य है। बड़े (भले) बनाकर काल भैरव की पूजा होती है, और वे बड़े भैरव के वाहन काले कुत्ते को खिलाये जाते हैं।

३७. मकर-संक्रान्ति
इसको उत्तरायणी भी कहते हैं। इस दिन से उत्तरायण का प्रवेश होता है। प्रयाग में यह पर्व माघ-मेला कहा जाता है। बागेश्वर में बड़ा मेला होता है। वैसे गंगास्नान रामेश्वर, चित्रशिला व अन्य स्थानों में भी होते हैं।

कुमाऊँ में इस त्यौहार को 'घुघुतिया' भी कहते हैं। गुड़ मिलाकर आटे को गूँथते हैं फिर एक पक्षी विशेष की आकृति बना घी में पकवान बनाकर उसकी माला गुँथते हैं। माला में नारंगी फल भी आदि भी लगाते हैं। वे मालाएँ बच्चों के गले में पहनाई जाती है। वे सुबह उठकर माला पहन 'काले-काले' कहकर कौवों को बुलाते हैं। पकवान माला से तोड़कर उसे खिलाते हैं। यह प्रथा कुमाऊँ से अन्यत्र देखने में नहीं आती। यह यहाँ का प्राचीन त्यौहार ज्ञात है। 

३८. संकष्टहर व्रत
माघ कृष्ण चतुर्थी को गणेशजी का व्रत पूजन करते हैं।

३९. वसन्त पंचमी
माघ शुल्क पंचमी को श्रीपंचमी भी कहते हैं। इस दिन जौ की पत्तियाँ केतों से लेकर देवी-देवताओं को चढ़ाते तथा हरियाले की भाँति सिर पर रखते हैं। बहन-बेटियाँ भी टीका करती है। पीले रुमाल व वस्र रँगाये जाते हैं। आज से होली गाने लगते हैं। नृत्य एनं गीत का चलन भी है।

४०. भीष्माष्टमी
भाद्र शुल्काष्टमी को शुर-शय्या में पड़े हुए देवव्रत राजर्षि भीष्मपितामह ने प्राण-त्याग किया था। यह उनका श्राद्ध दिवस है। इस पुण्य तिथि को उनका तपंण किया जाता है। इस भीष्म-तपंण कहते हैं।

४१. शिवरात्रि
फाल्गुन कृष्ण १४ को शिवशंकर का व्रत सारे भारतवर्ष में होता है। इस दिन व्रत रखते हैं, और यत्र-तत्र नदियों में गंगा स्नान को स्री पुरुष जाते हैं। कुमाऊँ में कैलाश, जागीश्वर, वागीश्वर, सोमेश्वर, विभांडेश्वर, चित्रेश्वर, रामेश्वर,
भिकियासैणां, चित्रशिला आदि में मेले होते हैं।

४२. होली
फाल्गुन सुदी ११ को चीर-बंधन किया जाता है। कहीं-कहीं ८ अष्टमी कोचीर बाँधते हैं। कई लोग आमलकी ११ का व्रत करते हैं। इसी दिन भद्रा-रहित काल में देवी-देवताओं में रंग डालकर पुन: अपने कपड़ों में रंग छिड़कते हैं, और गुलाल डालते हैं। छरड़ी पर्यन्त नित्य ही रंग और गुलाल की धूम रहती है। गाना, बजाना, वेश्या-नृत्य दावत आदि समारोह से होते हैं। गाँव में खड़ी होलियाँ गाई जाती हैं। नकल व प्रहसन भी होते हैं। अश्लील होलियों तथा अनर्गल बकवाद की भी कमी नहीं रहती। कुमाऊँ में यह त्यौहार ६-७ दिन तक बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है। सतराली, पाटिया, गंगोली, चम्पावत, द्वाराहाट आदि की होलियाँ प्रसिद्ध हैं। गाँवों में भी प्राय: सर्वत्र बैठकें होती हैं। मिठाई व गुड़ बाँटा जाता है। चरस व भांग की तथा शहरों में कुछ-कुछ मदिरा की धूम रहती है। फाल्गुन सदी १५ को होलिका दहन होता है। दूसरे दिन प्रतिपदा का छरड़ी मनाई जाती है। घर-घर में घूमकर होलिका मनाकर सायंकाल को रंग के कपड़े बदलते हैं। धन भी एकत्र करते हैं, जिसका देहातों में भंड़ारा होता है। 
४३. टीका २
चैत कृष्ण २ को दम्पति-टाका कहलाता है। जिस प्रकार 'वसंत, हरेला, दशाई व बगवाली' को भ्रातृ-भार्गनी का टीका होता है, उसी प्रकार इस दिन स्री-पुरुषों का टीका होता है। भावज या साली को भी टीका भेंट दी जाती है।

इन व्रतों के अलावा एकादशी - व्रतप्रति पक्ष में किये जाते हैं। हरिशयनी, हरिबोधिनी, आमलकी ये मुख्य व्रत हैं। इन एकादशियों का तथा चातुर्मास्य की एकादशियों का व्रत प्राय: बहुत लोग करते हैं। स्रियाँ जागरण, कथा-श्रवण करती हैं। निराहार-फलाहार दोनों प्रकार के व्रत होते हैं। कोई-कोई पकवान खाते हैं। एकादशी को चावल वर्जित होते हैं। 


वारों का व्रत - 
रविवार को सूर्य-व्रत होता है। पौष मास में अधिक लोग रविवार को व्रत तथा सूर्य पूजा करते हैं। लवण-रहित पकवान खाते हैं। सोमवार शिव का व्रत स्रियाँ करती हैं। श्रावण, माघ तथा वैशाख में इसका अधिक प्रचार होता है। पूरी, रोटी अथवा फलाहार भोजन होता है। भौमवार को मंगल का व्रत होता है। लवण-रहित अन्न भोजन करने की विधि है।

इन व्रतों को उद्यापन भी होते हैं। उद्यापन के बाद व्रत करने की आवश्यकता नहीं समझी जाती। इनके अलावा स्रियाँ कात्तिक-स्नान, तथा लक्षवर्तिका, तुलसी-विवाह आदि-आदि भी यदा-कदा किया करती है।





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सोमवार, 19 जुलाई 2010

भिटौली – उत्तराखण्ड में महिलाओं को समर्पित एक विशिष्ट परम्परा


उत्तराखण्ड राज्य में कुमाऊं-गढवाल मण्डल के पहाड़ी क्षेत्र अपनी विशिष्ट लोक परम्पराओं और त्यौहारों को कई शताब्दियों से सहेज रहे हैं| यहाँ प्रचलित कई ऐसे तीज-त्यौहार हैं, जो सिर्फ इस अंचल में ही मनाये जाते हैं. जैसे कृषि से सम्बन्धित त्यौहार हैं हरेला और फूलदेई, माँ पार्वती को अपने गाँव की बेटी मानकर उसके मायके पहुंचा कर आने की परंपरा “नन्दादेवी राजजात”, मकर संक्रान्ति के अवसर पर मनाये जाने वाला घुघतिया त्यौहार आदि.
उत्तराखण्ड की ऐसी ही एक विशिष्ट परम्परा है “भिटौली”. भिटौली का शाब्दिक अर्थ है – भेंट (मुलाकात) करना. प्रत्येक विवाहित लड़की के मायके वाले (भाई, माता-पिता या अन्य परिजन) चैत्र के महीने में उसके ससुराल जाकर विवाहिता से मुलाकात करते हैं. इस अवसर पर वह अपनी लड़की के लिये घर में बने व्यंजन जैसे खजूर (आटे + दूध + घी + चीनी का मिश्रण), खीर, मिठाई, फल तथा वस्त्रादि लेकर जाते हैं. शादी के बाद की पहली भिटौली कन्या को वैशाख के महीने में दी जाती है और उसके पश्चात हर वर्ष चैत्र मास में दी जाती है. यह एक अत्यन्त ही भावनात्मक परम्परा है. लड़की चाहे कितने ही सम्पन्न परिवार में ब्याही गई हो उसे अपने मायके से आने वाली “भिटौली” का हर वर्ष बेसब्री से इन्तजार रहता है. इस वार्षिक सौगात में उपहार स्वरूप दी जाने वाली वस्तुओं के साथ ही उसके साथ जुड़ी कई अदृश्य शुभकामनाएं, आशीर्वाद और ढेर सारा प्यार-दुलार विवाहिता तक पहुंच जाता है.
burans_flowerउत्तराखण्ड की महिलाएं यहाँ के सामाजिक ताने-बाने की महत्वपूर्ण धुरी हैं. घर-परिवार संभालने के साथ ही पहाड़ की महिलाएं पशुओं के चारे और ईंधन के लिये खेतों-जंगलों में अथक मेहनत करती हैं. इतनी भारी जिम्मेदारी उठाने के साथ ही उन्हें अपने जीवनसाथी का साथ भी बहुत सीमित समय के लिये ही मिल पाता है क्योंकि पहाड़ के अधिकांश पुरुष रोजी-रोटी की तलाश में देश के अन्य हिस्सों में पलायन करने के लिये मजबूर हैं. इस तरह की बोझिल जिन्दगी निभाते हुए पहाड़ की विवाहित महिलाएं इन सभी दुखों के साथ ही अपने मायके का विछोह भी अपना दुर्भाग्य समझ कर किसी तरह झेलने लगती हैं. लेकिन जब पहाड़ों में पतझड़ समाप्त होने के बाद पेड़ों में नये पत्ते पल्लवित होने लगते हैं और चारों ओर बुरांश व अन्य प्रकार के जंगली फूल खिलने लगते हैं तब इन महिलाओं को अपने मायके के बारे में सोचने का अवकाश मिलता है. इस समय खेतों में काम का बोझ भी अपेक्षाकृत थोड़ा कम रहता है और महिलाएं मायके की तरफ से माता-पिता या भाई के हाथों आने वाली “भिटौली” और मायके की तरफ के कुशल-मंगल के समाचारों का बेसब्री से इन्तजार करने लगती हैं. इस इन्तजार को लोक गायकों ने लोक गीतों के माध्यम से भी व्यक्त किया है, “न बासा घुघुती चैत की, याद ऐ जांछी मिकें मैत की”।
ghughuti-birdजब महिला के मायके से “भिटौली” लेकर उसके माता-पिता, भाई-भतीजे पहुंचते हैं तो घर में एक त्यौहार का माहौल बन जाता है. उनके द्वारा लायी गई सामग्री को पड़ोस के लोगों में बांटा जाता है. शाम को “भिटौली” पकाई जाती है अर्थात खीर, पूरी, हलवा आदि पकवान बनते हैं और इसे खाने के लिये भी गांव-पड़ोस के लोगों को आमन्त्रित किया जाता है. इस तरह यह परम्परा पारिवारिक न रहकर सामाजिक एकजुटता का एक छोटा सा आयोजन बन जाती है.
वर्तमान समय में हालांकि दूरसंचार के माध्यमों और परिवहन के क्षेत्र में उपलब्ध सुविधाओं की बदौलत दूरियां काफी सिमट चुकी हैं लेकिन एक विवाहिता के दिल में मायके के प्रति संवेदनाएं और भावनाएं शायद ही कभी बदल पायेंगी. इसीलिये सदियों से चली आ रही यह परम्परा आज भी पहले की तरह ही कायम है. शहरों में रह रहे नये पीढी के लोग अब “वेलेन्टाइन डे”, “रोज डे”, “मदर्स-फादर्स डे” जैसे पाश्चात्य संस्कृति के ढकोसले भरे औपचारिक मान्यताओं की तरफ आकर्षित होने लगे हैं. ऐसे में इस बात की सख्त जरूरत है कि हम अपनी इस विशिष्ट परम्परा को औपचारिकताओं से ऊपर उठकर अपनाएं. आज बशर्ते शहरों में रह रहे लोग अपनी बहनों को मनीआर्डर या कोई उपहार भेजकर ही “भिटौली” की परम्परा का निर्वाह कर लेते हों, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी “भिटौली” सिर्फ एक रिवाज ही नहीं बल्कि प्रत्येक विवाहिता के लिये अपने मायके से जुड़ी यादों को समेटकर रखने का एक वार्षिक आयोजन है.

ऋतुओं के स्वागत का त्यौहार- हरेला


उत्तराखण्ड की संस्कृति की समृद्धता के विस्तार का कोई अन्त नहीं है, हमारे पुरखों ने सालों पहले जो तीज-त्यौहार और सामान्य जीवन के जो नियम बनाये, उनमें उन्होंने व्यवहारिकता और विज्ञान का भरपूर उपयोग किया था। इसी को चरितार्थ करता उत्तराखण्ड का एक लोक त्यौहार है-हरेला
हरेले का पर्व हमें नई ऋतु के शुरु होने की सूचना देता है, उत्तराखण्ड में मुख्यतः तीन ऋतुयें होती हैं- शीत, ग्रीष्म और वर्षा। यह त्यौहार हिन्दी सौर पंचांग की तिथियों के अनुसार मनाये जाते हैं, शीत ऋतु की शुरुआत आश्विन मास से होती है, सो आश्विन मास की दशमी को हरेला मनाया जाता है। ग्रीष्म ऋतु की शुरुआत चैत्र मास से होती है, सो चैत्र मास की नवमी को हरेला मनाया जाता है। इसी प्रकार से वर्षा ऋतु की शुरुआत श्रावण (सावन) माह से होती है, इसलिये एक गते, श्रावण को हरेला मनाया जाता है। किसी भी ऋतु की सूचना को सुगम बनाने और कृषि प्रधान क्षेत्र होने के कारण ऋतुओं का स्वागत करने की परम्परा बनी होगी।
उत्तराखण्ड में देवाधिदेव महादेव शिव की विशेष अनुकम्पा भी है और इस क्षेत्र में उनका वास और ससुराल (हरिद्वार तथा हिमालय) होने के कारण यहां के लोगों में उनके प्रति विशेष श्रद्धा और आदर का भाव रहता है। इसलिये श्रावण मास के हरेले का महत्व भी इस क्षेत्र में विशेष ही होता है। श्रावण मास के हरेले के दिन शिव-परिवार की मूर्तियां भी गढ़ी जाती हैं, जिन्हें डिकारे कहा जाता है। शुद्ध मिट्टी की आकृतियों को प्राकृतिक रंगों से शिव-परिवार की प्रतिमाओं का आकार दिया जाता है और इस दिन उनकी पूजा की जाती है।
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घर के भीतर बोया गया हरेला
हरेला शब्द का स्रोत हरियाली से है, पूर्व में इस क्षेत्र का मुख्य कार्य कृषि होने के कारण इस पर्व का महत्व यहां के लिये विशेष रहा है। हरेले के पर्व से नौ दिन पहले घर के भीतर स्थित मन्दिर में या ग्राम के मन्दिर के भीतर सात प्रकार के अन्न (जौ, गेहूं, मक्का, गहत, सरसों, उड़द और भट्ट) को रिंगाल की टोकरी में रोपित कर दिया जाता है। इससे लिये एक विशेष प्रक्रिया अपनाई जाती है, पहले रिंगाल की टोकरी में एक परत मिट्टी की बिछाई जाती है, फिर इसमें बीज डाले जाते हैं। उसके पश्चात फिर से मिट्टी डाली जाती है, फिर से बीज डाले जाते हैं, यही प्रक्रिया ५-६ बार अपनाई जाती है। इसे सूर्य की सीधी रोशनी से बचाया जाता है और प्रतिदिन सुबह पानी से सींचा जाता है। ९ वें दिन इनकी पाती (एक स्थानीय वृक्ष) की टहनी से गुड़ाई की जाती है और दसवें यानि कि हरेले के दिन इसे काटा जाता है। काटने के बाद गृह स्वामी द्वारा इसे तिलक-चन्दन-अक्षत से अभिमंत्रित (“रोग, शोक निवारणार्थ, प्राण रक्षक वनस्पते, इदा गच्छ नमस्तेस्तु हर देव नमोस्तुते” मन्त्र द्वारा) किया जाता है, जिसे हरेला पतीसना कहा जाता है। उसके बाद इसे देवता को अर्पित किया जाता है, तत्पश्चात घर की बुजुर्ग महिला सभी सदस्यों को हरेला लगाती हैं। लगाने का अर्थ यह है कि हरेला सबसे पहले पैरो, फिर घुटने, फिर कन्धे और अन्त में सिर में रखा जाता है और आशीर्वाद स्वरुप यह पंक्तियां कहीं जाती हैं।
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हरेले की थाली

जी रये, जागि रये
धरती जस आगव, आकाश जस चाकव है जये
सूर्ज जस तराण, स्यावे जसि बुद्धि हो
दूब जस फलिये,
सिल पिसि भात खाये, जांठि टेकि झाड़ जाये।{अर्थात-हरियाला तुझे मिले, जीते रहो, जागरूक रहो, पृथ्वी के समान धैर्यवान,आकाश के समान प्रशस्त (उदार) बनो, सूर्य के समान त्राण, सियार के समान बुद्धि हो, दूर्वा के तृणों के समान पनपो,इतने दीर्घायु हो कि (दंतहीन) तुम्हें भात भी पीस कर खाना पड़े और शौच जाने के लिए भी लाठी का उपयोग करना पड़े।}
इस पूजन के बाद परिवार के सभी लोग साथ में बैठकर पकवानों का आनन्द उठाते हैं, इस दिन विशेष रुप से उड़द दाल के बड़े, पुये, खीर आदि बनाये जाने का प्रावधान है। घर में उपस्थित सभी सदस्यों को हरेला लगाया जाता है, साथ ही देश-परदेश में रह रहे अपने रिश्तेदारो-नातेदारों को भी अक्षत-चन्दन-पिठ्यां के साथ हरेला डाक से भेजने की परम्परा है।
चैत्र मास के प्रथम दिन हरेला बोया जाता है और नवमी को काटा जाता है। श्रावण मास लगने से नौ दिन पहले आषाढ़ मास में बोया जाता है और १० दिन बाद काटा  जाता है और आश्विन मास में नवरात्र के पहले दिन बोया जाता है और दशहरे  के दिन काटा जाता है। हरेला घर मे सुख, समृद्धि व शान्ति के लिए बोया व काटा जाता है। हरेला अच्छी कृषि का सूचक है, हरेला इस कामना के साथ बोया जाता है कि इस साल फसलो को नुकसान ना हो। हरेले के साथ जुड़ी ये मान्यता भी है कि जिसका हरेला जितना बडा होगा उसे कृषि मे उतना ही फायदा होगा।
वैसे तो हरेला घर-घर में बोया जाता है, लेकिन किसी-किसी गांव में हरेला पर्व को सामूहिक रुप से द्याप्ता थान (स्थानीय ग्राम देवता) में भी मनाये जाने का प्रावधान है। मन्दिर में हरेला बोया जाता है और पुजारी द्वारा सभी को आशीर्वाद स्वरुप हरेले के तिनके प्रदान किय जाते हैं। यह भी परम्परा है कि यदि हरेले के दिन किसी परिवार में किसी की मृत्यु हो जाये तो जब तक हरेले के दिन उस घर में किसी का जन्म न हो जाये, तब तक हरेला बोया नहीं जाता है। एक छूट भी है कि यदि परिवार में किसी की गाय ने इस दिन बच्चा दे दिया तो भी हरेला बोया जायेगा।
उत्तराखण्ड में हरेले के त्यौहार को “वृक्षारोपण त्यौहार” के रुप में भी मनाया जाता है। श्रावण मास के हरेला त्यौहार के दिन घर में हरेला पूजे जाने के उपरान्त एक-एक पेड़ या पौधा अनिवार्य रुप से लगाये जाने की भी परम्परा है। माना जाता है कि इस हरेले के त्यौहार के दिन किसी भी पेड़ की टहनी को मिट्टी में रोपित कर दिया जाय, पांच दिन बाद उसमें जड़े निकल आती हैं और यह पेड़ हमेशा जीवित रहता है।

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