सोमवार, 19 जुलाई 2010

उत्तरांचल की महान लोक कला

पर्वतीय क्षेत्र में महिलाओं द्वारा विविध अवसरों पर नित्य प्रति के साज-सामान से विभन्न अलंकरणों को गैरिक पष्टभूमि पर इस प्रकार से उकेरा जाता है कि अच्छा भला चित्रकार भी शरमा जाए। रंग संयोजन की इस शैली में वे आकृति परक चित्रांकन आते हैं जिनसे कभी कभी तो मात्र प्राकृतिक रंगों जैसे गेरु और पीसे हुए चावल के घोल से अंकन कर भव्य आकतियों को जन्म दिया जाता है। टोपण की यह समृद्ध लोक परंपरा योजना समूचे भारत में अलग-अलग मानों से जानी जाती है। उत्तर प्रदेश में चौक पूरना, राजस्थान में मांडना, सौराष्ट्र में साथिया, साहाराष्ट्र व दक्षिण भारत में रंगोली व कोलम, बंगाल में अल्पना नाम से यह कला जानी जाती है जिसमें स्थानीयता के प्रभाव से अलंकरणों में विभेद होता रहता है। कुमा में प्रत्येक व्रत-त्योहार, उपनयन संस्कार, पूजा नामकरण, विवाह, छठी आदि शुभ पर्वों? पर भूमि अलंकरण बनाने की परंपरा है। इसलिए स्थानीय लोक जगत ने अपने पास की सरलता से उप्लब्ध होने वाली वस्तुओं का प्रयोग खाली स्थानों व आंगन को संवारने में किया। ताकि इन स्थानों का अलंकरण कर घर-द्वारों को सुरुचिपूर्ण और मंगलमय बनाया जा सके।

टोपण का अर्थ है - लीपना। वैसे लीप शब्द का अर्थ है अंगुलियों से रंग लगाना, न कि तूलिका से रंग भरना। टोपम की इस विधा में गेरु की पृष्ठभूमि पर पिये चावल के धोल से अथवा कमेछ मिट्टी से अलंकरण किये जाते हैं। लगातार अभ्यास से दक्ष अंगुलियाँ टेपण की योजना को मनोहारी रुप देने लगती है। टेपण का सृजन अंदर से बाहर की ओर होता है। केन्द्र की विषयवसुतु का अंकन सर्वप्रथम तथा उसके बाद धीरे-धीरे परिधि की ओर विस्तार होता है। केन्द्र में दो चित्र अंकित किया जाता है वह प्रायः निश्चित अवयवों और परंपराओं के आधार पर यंत्र के सादृश्य अनूकृति से परिपूरित होता है जिसमें आधा ज्यामितीय हो सकते हैं। मध्य में कलाकार को कल्पना की छूट नहीं है जबकि बाह्म भाग कल्पना की निश्चित छूट से हो सकता है, इस भाग में बैलबूटे, डिज़ाइन बनाई जाती है। विषय परंपरा के अनुसार पूर्व निर्धारित हो सकते हैं।

रुप विन्यास और आलेखनों को अलंकृत करने की जगह को आधार मानकर टेपण को क्रमशः भूमि टेपण, चौकी टेपण, दीवार टेपण तथा वस्तु परक टेपण आदि में वर्गीकृत कर सकते हैं। भूमि टेपण के अन्तर्गत भूमि पर विशेष चौकियों व यंत्रों का निर्माण होता है। चौकियों पर अलंकृत होने वाले टेपण वे हैं जिनके लिए भूमि की अपेक्षा लकड़ी की चौकियों पर अवसर विशेष के लिए टेपण बनाई जाती हैं। दीवार पर बनने वाले अलंकारिक टेपणों को दीवार टेपण नाम दिया गया है। जबकि सूप कांसे की थाली आदि पर बनने वाले टेपण वस्तु पूरक माने जाते हैं।

इस कला में सूर्य, चन्द्र, स्वास्तिक, नाग, शंख, धंटा, विभिन्न प्रकार के पुष्प, तरह-तरह की बेलें व अन्य ज्यामितीय आकृतियां बनाई जाती हैं। बहुतायत से प्रयुक्त होनो वाले देव प्रतीक बुरी आत्माओं से रक्षा व लोक कल्याण का भाव अपने में समेंटे हुए हैं। छोटी मोटी लोक कथाएं व धार्मिक विश्वास इन अकृतियों के प्रेणा स्रोत रहे हैं। साथिया व स्वास्तिक अथवा खोड़िया सभी लोक कलाओं का अनिवार्य अंग है। इसके बिना कोई भी अलंकरण पूरा नहीं होता। किसी भी शुभ कार्य में इस चिन्ह को गणेश की तरह सर्वप्रथम स्थापित किया जाता है। इसकी चार भुजाएं चार वर्ण, चार आश्रम, चार दिशाएं, व चार युग अथवा वेदों को इंगित करती हैं। यह शक्ति, प्रगति, प्रेरणा व शोभा की भी सूचक हैं।

भूमि टेपणों में शिव की पीठ, सकस्वती चौकी, महालक्ष्मी की चौकी, धूलिअध्र्य, चामुण्डा चौकी के अलावा देहली टेपण भी सम्मिलित हैं।

देहली द्वार में लगली, टपुकिया, मोतिचूर, सुनजई कोठा व आड़ा आदि बनाने की परम्परा है जिसको अनेक प्रतीकों बेलों व कमलदीपों से अलंकृत किया गया है। टेपण के अन्तगर्त बनाया जाने वाला धूलिअध्र्य, नमूना विवाह में गोधूली के समय मुख्य रुप से बनाया जाता है। इसका निर्माण वृत की अवस्था से होता है जो बेलों, लताओं द्वारा अलंकृत होकर घट सदृश बन जाता है। मध्य में हवनकुँड, अरिणी - समिधा, मांगलिक तिन्ह व लक्ष्मी के पदों का अंकन होता है। यहाँ घट की आकृति पर व वधू के कल्याण को दर्शाती है। यह ॠषि विवाह का सूचक है। कुमाऊँ में वर बधू को विष्णु व लक्ष्मी के प्रतीक के रुप में मान दिया जाता है। इस टेपण को विष्णु का स्थान मानकर इस पर वर को आसन दिया जाता है। कुछ लोग धूलीअध्र्य को वृक्ष सदृश मानके हैं। 

दीपावली के अवसर पर बनने वाली लक्ष्मी की पदावलियां घर, आंगन, देहली, फर्श, सीढियौं, द्वारों व कक्षों में अंकित होती हैं। सहिलाएं मुट्ठी को बन्द करके घर के बाहर से अन्दर की ओर जाते हुए लक्ष्मी के पैर गेरु के धरातल पर बिस्वार से बनाती हैं। मुट्ठी के छाप से बनी आकृति के ऊपर अंगूठा बनाया जाता है। दो पैरों के बीच रिक्त स्थान पर गोल चिन्ह बनाया जाता है जो पुष्प आकृति का भी हो सकता है। यह चिन्ह लक्ष्मी के आसन कमल अथवा धन का प्रतीक होता है। पूजा कक्ष में भी लक्ष्मी के चौकी बनाये जाने का प्रचलन है। चौकी पर धन ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी को गन्ने के टुकड़ों से निर्मित कर स्थापित किया जाता है तथा इसको स्थानीय वेशभूषा से सज्जित कर आभूषणों से आभूषित किया जाता है।

हरिबोधनी एकादशी या बूढ़ी दीपावली को भुईंया बनायी जाती है जिसे अहितकारी दैत्य आत्मा माना जाता है। यह दरिद्रता का प्रताक माना है। इसको आंगन में अंकित कर महिलाएँ आलेखित सूप में, ब्रह्ममूहूर्त में, गन्ना, दाड़िम, अखरोट पर पुष्प डालकर उसके पास आकर उसे भगाती हैं। सूप में रखी गई सामग्री को भुईंया के स्थान पर रखकर सूप में अंकित लक्ष्मी - नारायण के साथ घर में प्रवेश करती हैं। भुईंया का स्वरुप कीट की भांति दर्शाया जाता है।

सरस्वती चौकी फर्श पर निर्मित होती है। इस, अलंकरम में केन्दिर को बिन्दु रखकर उसके चारों ओर डिजायनें बनायी जाती है। यह वृत के रुप में होती है। मुख्य दैविक शक्तियों को त्रिभुज के द्वारा व्यक्त किया जाता है। यह त्रिभुज सोलह कमलदल से आवृत होता है। इसके चारों ओर बिन्दु या वृत बनाये जाते हैं। कभी - कभी सरस्वती को पंच भुजाकार तारे से भी चित्रित केया जाता है अथवा जनेऊ धारण करवाया जाता है।

शिव की पीठ नामक टेपण को शिव पूजन केलिए पूजा कक्ष अथवा पार्थिव पूजन के समय अंकित किया जाता है। मध्य में धन (+) चिन्ह यास्वास्तिक बनता है जो जीवन के चार मार्गों को प्रतीकात्मक प्रदर्शन है। यह चारों मार्ग केन्द्र सेजुड़ते हैं। इसे कई क्षैत्ज व लम्बवत् समानान्तर रेखाओं के संयोजन से बनाया जाता हैं ; मध्य में जिह्मवा बनायी जाती है।

दीवारों पर अंकित होनेवोले टेपणों में थापे व टुपुक प्रमुख हैं। टुपुक रसोईघर में दो #्लग-#्लग तरह से बनाये जाते हैं। नाता नामक अल्पना कुमाऊँनी रसाईकी प्रमुख आभूषण है। शाह परिवारों में मेष संक्रान्ति के अवसर पर यह रसोई घरकी दीवार पर बनायी जाती है। परिवार के सदस्यों को स्नेह के बन्धन में बाँघने की अभिव्यक्ति के रुप में इस डिजायन का चित्रण किया जाता है। अनाज की बालियों को समृद्धि के प्रतीक को रुप में एक दूसरे से जोड़कर अंगुलियों के रुप में मानवरुपी रेखाचित्र बनाये जाते हैं बायीं ओर की आकृतियाँ लक्ष्मी तथा दाहिनि ओेर की विष्णु की प्रतीक समझी जाती हैं। इनके दाहिनी ओर ब्रह्मा, विष्णु और महेश बनाये जाते हैं। मंच का अंकन कर सीढ़ी और बालियां दर्शायी जाती हैं। इसके मध्य में त्रिभुज बनाकर बिन्दु बनाया जाता है। यह डिजायन बौद्ध कला के 'चैत्य' से साम्य रखता है। 

लक्ष्मी पूजन के लिए कांसे की थाली पर अथवा कागज के पट्टे पर लक्ष्मी अल्पना व थापे अंकित किये जाते हैं। थापे में चारों दिशाओं की ओर चार हाथी धन-धान्य व समृद्धि के प्रतीक के रुप में लक्ष्मी पर पवित्र जल अर्पित करते हुए दर्शाये जाते हैं। हाथी मेघों के भी प्रतीक समझे जाते हैं। पृथवी की समृद्धि वर्षा पर निर्भर है। कमलासन उर्वरता एवं विकास को लिए हुए है और लक्ष्मी धन, यश, वैभव व समृद्धि और मंगल की देवी है।

इस अल्पना में लक्ष्मी को चतुर्भुजी निरुपित किया जाता है। लक्ष्मी के नीचे खोरिया या स्वास्तिक आसन या पादपीठ के प्रतीक के रुप में बनाया जाता है। चौकी के दोनों ओर लक्ष्मी के पदचिन्ह तथा निचले कोनों पर जल कुँड निर्मित करने का विधान है जिनसे लेकर हाथी देवी पर जल चढ़ाते हैं, दर्शाये जाने की परम्परा है। लक्ष्मी के दोनों ओर युगल हाथी फूलमाला डालने को तैयार बनाये जाते हैं। इस अल्पना के किनारे को लक्ष्मी के पदचिन्हों से सुसज्जित बनाया जाता है।

कुमाऊँ क्षेत्र के टेपण तंत्र से भी अन्तर्सम्बन्ध रखते प्रतीत होते हैं। वैसे लगभग सभी आकृतियाँ प्रतीकात्मत हैं। सुष्टि की उत्पति शिव और शक्ति के संयोजन से हुई है। इन दोनों शक्तियों को त्रिभुज के माध्यम से व्यक्त किया जाता है। ये दोनों त्रोभुज आपस में एक दूसरे का काटते हुए अधोमुखी तथा उध्वर्मखी बनाये जाते हैं। त्रिभुज के तीनों बिन्दु महालक्ष्मी, महाकाली व महासरस्वती के प्रतीक भी माने जाते हैं। तंत्र में बीज या विन्दु को सृष्टि का आधार माना जाता है। बिन्दु से महाबिन्दु की उत्पति शिव तथा शक्ति के मिलन से हुई है। शक्ति के साकार रुप में ही शिव का निराकार रुप अपना आकार ग्रहण करता है, शिव शक्ति का संयोजन स्थल मिश्र बिन्दु कहलाता है। यही त्रिकोण को तीन स्थल पर संयुक्त रुप देता है। अधोमुखी त्रिभुज जल और उध्वर्मुखी अग्नि का प्रतीक समझे जाते हैं। त्रिभुजों के बीच का स्थान जीवन की क्षणभंगुरता को दर्शाता है। त्रिभुजों को घेरने बाले बृत ब्रह्मांड के प्रतीक हैं। इनको कमल दल से अलंकृत करने का विधान है। कमलदल जीवन की पवित्रता को आभासित करते हैं। बिन्दु का प्रयोग सभी आलेखनों से बहुतायत से होता है; यह स्थायित्व का प्रतीक है कुछ विद्वान इसे अनंत, ब्रहमांड या आकाश का प्रतीक मानते हैं। वर्ग पृथ्वी को प्रदर्शित करता है। डिजायनों में प्रयुक्त वृत संसार की गतिक अवस्था का भाव लिए है। यह नाद को व्ययक्त करता है। टेपण में प्रयुक्त मछली सौभाग्य का, गाज बुद्धि का तथा अनंत का प्रतीक है। टेपण में पूजन की सामग्री को भी प्रमुखता से सअथान मिला है। शुभ की कामना से दीपक शंख, घंटी, का अंकन स्वतंत्रता से कलाकारों द्वारा किया जाता है।

अल्पना का सृजन अन्दर से बाहर की ओर होता है। केन्द्र की विषयवस्तु का अंकन सर्वप्रथम तथा उसके बाद धीरे - धीरे परिधि की ओर विस्तार होता है। केन्द्र में बनाया जानेवाला चित्र निश्चित अवयवों और परम्पराओं के आधार पर तंत्र अभिप्राय के सदृश आकृति लिए निरुपित किया जाता है, जिसमें ज्यामितीय आधार हो सकते हैं।

केन्द्र में बननेवाले वृत के अन्दर मुख्य संस्कार सम्बन्धी चित्र तथा समकोण पर काटती दो ॠजु रेखायें बनायी जाती हैं। ये रेखायें वैदिक काल में हवन प्रज्वलित करने के लिए प्रयुक्त अरणी के प्रतीक हैं। इस वृताकार चित्र पर पूजा की सामग्री तथा पुरोहित के लिए उपहार रखें जाते हैं।

कुमाऊँनी लोक कला में निश्चित लोक तत्व निहित हैं। कमलदल सबसे अधिक प्रयुक्त होनोवाला पुष्प है। जबकि वृक्ष जैसी आकृतियाँ बहुतायत से प्रयुक्त हुई हैं। धूली अध्र्य को कुछ लोग घट तथा कुछ लोग शाखाओं सहित वृक्ष मानते हैं। सम्भवतः वृक्ष ने फलने - फूलने की प्रवृति और सम्पन्नता से सम्बन्ध रखने के कारण स्थान पाया होगा। सितारों को सप्तर्षि के रुप में जनेऊ चौकी में आलेखित कोया जाता है। डॉ जगदीश गुप्त द्वारा वर्गीकरणहो सकता है। आकारीय स्वरुप के आधार पर कुछ टेपण रेखा प्रधान जैसे गनेलिया व सांगलिया बेल, आकृति प्रधान जैसे थापे व प ज्यामिती प्रधान जैसे बरबूँद, क्षेपाक्षण प्रधान जैसे हाथ के थापे, कथा प्रधआन जैसी दुर्गाष्टमी, बटसावित्री पट्ट बहाकर बनाये जानेवाले जैसे वसुन्धरा, टपकाकर बनाये जाने वाले जैसे टुपुक, रंगाकन करनेवाले जैसे लंगावली का पिछौड़ा, सीमाबद्ध जैसे हिमांचल, स्वतंत्र शैली जैसे घुइयां लक्ष्मी - यंत्र आदि।

आधुनिकता की होड़ में जबकि विश्वास निरन्तर जड़ हेते जा रहे हैं, महिलाओं द्वारा संजायी गयी इसकला के प्रतिमान कम से कम पर्वतीय क्षेत्र में अभी भी सेरक्षित रखने कीप्रवृति में ह्रास नहीं हुआ है। यह अलग बात है कि प्राकृतिक रंगों के स्थान पर सिंथेटिक रंगों का प्रचलन बढ़ रहा है। इसका परिणाम है कि जो सुघड़ता और लोच गेरुई पृष्टभूमि पर बिस्वार अथवा कमेठ से आभासित होती है उसके स्वरुप में लोकतत्व का ह्रास न आने लगा है।

उत्तरांचल राज्य का सिरमौर कुमाऊ बैलट

भिटौली – उत्तराखण्ड में महिलाओं को समर्पित एक विशिष्ट परम्परा


उत्तराखण्ड राज्य में कुमाऊं-गढवाल मण्डल के पहाड़ी क्षेत्र अपनी विशिष्ट लोक परम्पराओं और त्यौहारों को कई शताब्दियों से सहेज रहे हैं| यहाँ प्रचलित कई ऐसे तीज-त्यौहार हैं, जो सिर्फ इस अंचल में ही मनाये जाते हैं. जैसे कृषि से सम्बन्धित त्यौहार हैं हरेला और फूलदेई, माँ पार्वती को अपने गाँव की बेटी मानकर उसके मायके पहुंचा कर आने की परंपरा “नन्दादेवी राजजात”, मकर संक्रान्ति के अवसर पर मनाये जाने वाला घुघतिया त्यौहार आदि.
उत्तराखण्ड की ऐसी ही एक विशिष्ट परम्परा है “भिटौली”. भिटौली का शाब्दिक अर्थ है – भेंट (मुलाकात) करना. प्रत्येक विवाहित लड़की के मायके वाले (भाई, माता-पिता या अन्य परिजन) चैत्र के महीने में उसके ससुराल जाकर विवाहिता से मुलाकात करते हैं. इस अवसर पर वह अपनी लड़की के लिये घर में बने व्यंजन जैसे खजूर (आटे + दूध + घी + चीनी का मिश्रण), खीर, मिठाई, फल तथा वस्त्रादि लेकर जाते हैं. शादी के बाद की पहली भिटौली कन्या को वैशाख के महीने में दी जाती है और उसके पश्चात हर वर्ष चैत्र मास में दी जाती है. यह एक अत्यन्त ही भावनात्मक परम्परा है. लड़की चाहे कितने ही सम्पन्न परिवार में ब्याही गई हो उसे अपने मायके से आने वाली “भिटौली” का हर वर्ष बेसब्री से इन्तजार रहता है. इस वार्षिक सौगात में उपहार स्वरूप दी जाने वाली वस्तुओं के साथ ही उसके साथ जुड़ी कई अदृश्य शुभकामनाएं, आशीर्वाद और ढेर सारा प्यार-दुलार विवाहिता तक पहुंच जाता है.
burans_flowerउत्तराखण्ड की महिलाएं यहाँ के सामाजिक ताने-बाने की महत्वपूर्ण धुरी हैं. घर-परिवार संभालने के साथ ही पहाड़ की महिलाएं पशुओं के चारे और ईंधन के लिये खेतों-जंगलों में अथक मेहनत करती हैं. इतनी भारी जिम्मेदारी उठाने के साथ ही उन्हें अपने जीवनसाथी का साथ भी बहुत सीमित समय के लिये ही मिल पाता है क्योंकि पहाड़ के अधिकांश पुरुष रोजी-रोटी की तलाश में देश के अन्य हिस्सों में पलायन करने के लिये मजबूर हैं. इस तरह की बोझिल जिन्दगी निभाते हुए पहाड़ की विवाहित महिलाएं इन सभी दुखों के साथ ही अपने मायके का विछोह भी अपना दुर्भाग्य समझ कर किसी तरह झेलने लगती हैं. लेकिन जब पहाड़ों में पतझड़ समाप्त होने के बाद पेड़ों में नये पत्ते पल्लवित होने लगते हैं और चारों ओर बुरांश व अन्य प्रकार के जंगली फूल खिलने लगते हैं तब इन महिलाओं को अपने मायके के बारे में सोचने का अवकाश मिलता है. इस समय खेतों में काम का बोझ भी अपेक्षाकृत थोड़ा कम रहता है और महिलाएं मायके की तरफ से माता-पिता या भाई के हाथों आने वाली “भिटौली” और मायके की तरफ के कुशल-मंगल के समाचारों का बेसब्री से इन्तजार करने लगती हैं. इस इन्तजार को लोक गायकों ने लोक गीतों के माध्यम से भी व्यक्त किया है, “न बासा घुघुती चैत की, याद ऐ जांछी मिकें मैत की”।
ghughuti-birdजब महिला के मायके से “भिटौली” लेकर उसके माता-पिता, भाई-भतीजे पहुंचते हैं तो घर में एक त्यौहार का माहौल बन जाता है. उनके द्वारा लायी गई सामग्री को पड़ोस के लोगों में बांटा जाता है. शाम को “भिटौली” पकाई जाती है अर्थात खीर, पूरी, हलवा आदि पकवान बनते हैं और इसे खाने के लिये भी गांव-पड़ोस के लोगों को आमन्त्रित किया जाता है. इस तरह यह परम्परा पारिवारिक न रहकर सामाजिक एकजुटता का एक छोटा सा आयोजन बन जाती है.
वर्तमान समय में हालांकि दूरसंचार के माध्यमों और परिवहन के क्षेत्र में उपलब्ध सुविधाओं की बदौलत दूरियां काफी सिमट चुकी हैं लेकिन एक विवाहिता के दिल में मायके के प्रति संवेदनाएं और भावनाएं शायद ही कभी बदल पायेंगी. इसीलिये सदियों से चली आ रही यह परम्परा आज भी पहले की तरह ही कायम है. शहरों में रह रहे नये पीढी के लोग अब “वेलेन्टाइन डे”, “रोज डे”, “मदर्स-फादर्स डे” जैसे पाश्चात्य संस्कृति के ढकोसले भरे औपचारिक मान्यताओं की तरफ आकर्षित होने लगे हैं. ऐसे में इस बात की सख्त जरूरत है कि हम अपनी इस विशिष्ट परम्परा को औपचारिकताओं से ऊपर उठकर अपनाएं. आज बशर्ते शहरों में रह रहे लोग अपनी बहनों को मनीआर्डर या कोई उपहार भेजकर ही “भिटौली” की परम्परा का निर्वाह कर लेते हों, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी “भिटौली” सिर्फ एक रिवाज ही नहीं बल्कि प्रत्येक विवाहिता के लिये अपने मायके से जुड़ी यादों को समेटकर रखने का एक वार्षिक आयोजन है.

ऋतुओं के स्वागत का त्यौहार- हरेला


उत्तराखण्ड की संस्कृति की समृद्धता के विस्तार का कोई अन्त नहीं है, हमारे पुरखों ने सालों पहले जो तीज-त्यौहार और सामान्य जीवन के जो नियम बनाये, उनमें उन्होंने व्यवहारिकता और विज्ञान का भरपूर उपयोग किया था। इसी को चरितार्थ करता उत्तराखण्ड का एक लोक त्यौहार है-हरेला
हरेले का पर्व हमें नई ऋतु के शुरु होने की सूचना देता है, उत्तराखण्ड में मुख्यतः तीन ऋतुयें होती हैं- शीत, ग्रीष्म और वर्षा। यह त्यौहार हिन्दी सौर पंचांग की तिथियों के अनुसार मनाये जाते हैं, शीत ऋतु की शुरुआत आश्विन मास से होती है, सो आश्विन मास की दशमी को हरेला मनाया जाता है। ग्रीष्म ऋतु की शुरुआत चैत्र मास से होती है, सो चैत्र मास की नवमी को हरेला मनाया जाता है। इसी प्रकार से वर्षा ऋतु की शुरुआत श्रावण (सावन) माह से होती है, इसलिये एक गते, श्रावण को हरेला मनाया जाता है। किसी भी ऋतु की सूचना को सुगम बनाने और कृषि प्रधान क्षेत्र होने के कारण ऋतुओं का स्वागत करने की परम्परा बनी होगी।
उत्तराखण्ड में देवाधिदेव महादेव शिव की विशेष अनुकम्पा भी है और इस क्षेत्र में उनका वास और ससुराल (हरिद्वार तथा हिमालय) होने के कारण यहां के लोगों में उनके प्रति विशेष श्रद्धा और आदर का भाव रहता है। इसलिये श्रावण मास के हरेले का महत्व भी इस क्षेत्र में विशेष ही होता है। श्रावण मास के हरेले के दिन शिव-परिवार की मूर्तियां भी गढ़ी जाती हैं, जिन्हें डिकारे कहा जाता है। शुद्ध मिट्टी की आकृतियों को प्राकृतिक रंगों से शिव-परिवार की प्रतिमाओं का आकार दिया जाता है और इस दिन उनकी पूजा की जाती है।
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घर के भीतर बोया गया हरेला
हरेला शब्द का स्रोत हरियाली से है, पूर्व में इस क्षेत्र का मुख्य कार्य कृषि होने के कारण इस पर्व का महत्व यहां के लिये विशेष रहा है। हरेले के पर्व से नौ दिन पहले घर के भीतर स्थित मन्दिर में या ग्राम के मन्दिर के भीतर सात प्रकार के अन्न (जौ, गेहूं, मक्का, गहत, सरसों, उड़द और भट्ट) को रिंगाल की टोकरी में रोपित कर दिया जाता है। इससे लिये एक विशेष प्रक्रिया अपनाई जाती है, पहले रिंगाल की टोकरी में एक परत मिट्टी की बिछाई जाती है, फिर इसमें बीज डाले जाते हैं। उसके पश्चात फिर से मिट्टी डाली जाती है, फिर से बीज डाले जाते हैं, यही प्रक्रिया ५-६ बार अपनाई जाती है। इसे सूर्य की सीधी रोशनी से बचाया जाता है और प्रतिदिन सुबह पानी से सींचा जाता है। ९ वें दिन इनकी पाती (एक स्थानीय वृक्ष) की टहनी से गुड़ाई की जाती है और दसवें यानि कि हरेले के दिन इसे काटा जाता है। काटने के बाद गृह स्वामी द्वारा इसे तिलक-चन्दन-अक्षत से अभिमंत्रित (“रोग, शोक निवारणार्थ, प्राण रक्षक वनस्पते, इदा गच्छ नमस्तेस्तु हर देव नमोस्तुते” मन्त्र द्वारा) किया जाता है, जिसे हरेला पतीसना कहा जाता है। उसके बाद इसे देवता को अर्पित किया जाता है, तत्पश्चात घर की बुजुर्ग महिला सभी सदस्यों को हरेला लगाती हैं। लगाने का अर्थ यह है कि हरेला सबसे पहले पैरो, फिर घुटने, फिर कन्धे और अन्त में सिर में रखा जाता है और आशीर्वाद स्वरुप यह पंक्तियां कहीं जाती हैं।
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हरेले की थाली

जी रये, जागि रये
धरती जस आगव, आकाश जस चाकव है जये
सूर्ज जस तराण, स्यावे जसि बुद्धि हो
दूब जस फलिये,
सिल पिसि भात खाये, जांठि टेकि झाड़ जाये।{अर्थात-हरियाला तुझे मिले, जीते रहो, जागरूक रहो, पृथ्वी के समान धैर्यवान,आकाश के समान प्रशस्त (उदार) बनो, सूर्य के समान त्राण, सियार के समान बुद्धि हो, दूर्वा के तृणों के समान पनपो,इतने दीर्घायु हो कि (दंतहीन) तुम्हें भात भी पीस कर खाना पड़े और शौच जाने के लिए भी लाठी का उपयोग करना पड़े।}
इस पूजन के बाद परिवार के सभी लोग साथ में बैठकर पकवानों का आनन्द उठाते हैं, इस दिन विशेष रुप से उड़द दाल के बड़े, पुये, खीर आदि बनाये जाने का प्रावधान है। घर में उपस्थित सभी सदस्यों को हरेला लगाया जाता है, साथ ही देश-परदेश में रह रहे अपने रिश्तेदारो-नातेदारों को भी अक्षत-चन्दन-पिठ्यां के साथ हरेला डाक से भेजने की परम्परा है।
चैत्र मास के प्रथम दिन हरेला बोया जाता है और नवमी को काटा जाता है। श्रावण मास लगने से नौ दिन पहले आषाढ़ मास में बोया जाता है और १० दिन बाद काटा  जाता है और आश्विन मास में नवरात्र के पहले दिन बोया जाता है और दशहरे  के दिन काटा जाता है। हरेला घर मे सुख, समृद्धि व शान्ति के लिए बोया व काटा जाता है। हरेला अच्छी कृषि का सूचक है, हरेला इस कामना के साथ बोया जाता है कि इस साल फसलो को नुकसान ना हो। हरेले के साथ जुड़ी ये मान्यता भी है कि जिसका हरेला जितना बडा होगा उसे कृषि मे उतना ही फायदा होगा।
वैसे तो हरेला घर-घर में बोया जाता है, लेकिन किसी-किसी गांव में हरेला पर्व को सामूहिक रुप से द्याप्ता थान (स्थानीय ग्राम देवता) में भी मनाये जाने का प्रावधान है। मन्दिर में हरेला बोया जाता है और पुजारी द्वारा सभी को आशीर्वाद स्वरुप हरेले के तिनके प्रदान किय जाते हैं। यह भी परम्परा है कि यदि हरेले के दिन किसी परिवार में किसी की मृत्यु हो जाये तो जब तक हरेले के दिन उस घर में किसी का जन्म न हो जाये, तब तक हरेला बोया नहीं जाता है। एक छूट भी है कि यदि परिवार में किसी की गाय ने इस दिन बच्चा दे दिया तो भी हरेला बोया जायेगा।
उत्तराखण्ड में हरेले के त्यौहार को “वृक्षारोपण त्यौहार” के रुप में भी मनाया जाता है। श्रावण मास के हरेला त्यौहार के दिन घर में हरेला पूजे जाने के उपरान्त एक-एक पेड़ या पौधा अनिवार्य रुप से लगाये जाने की भी परम्परा है। माना जाता है कि इस हरेले के त्यौहार के दिन किसी भी पेड़ की टहनी को मिट्टी में रोपित कर दिया जाय, पांच दिन बाद उसमें जड़े निकल आती हैं और यह पेड़ हमेशा जीवित रहता है।

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