सोमवार, 19 जुलाई 2010

इतिहासिक उत्तरांचल का गठन

उत्तरांचल का गठन (The UP Reorganisation Act, 2000) के अनुसारः 

स्कन्द पुराण में हिमालय को पॉच भौगोलिक क्षेत्रों में विभक्त किया गया है:- 
खण्डाः पत्र्च हिमालयस्य कथिताः नैपालकूमाँचंलौ ।
केदारोऽथ जालन्धरोऽथ रूचिर काश्मीर संज्ञोऽन्तिमः ।।

अर्थात हिमालय क्षेत्र में नेपाल ,कुर्मांचल , केदारखण्ड़ (गढवाल), जालन्धर ( हिमाचल प्रदेश ) और सुरम्य काश्मीर पॉच खण्ड है। 

पौराणिक ग्रन्थों में कुर्मांचल क्षेत्र मानसखण्ड के नाम से प्रसिद्व था। पौराणिक ग्रन्थों में उत्तरीय हिमालय में सिद्ध गन्धर्व, यक्ष, किन्नर जातियों की सृष्टि और इस सृष्टि का राजा कुबेर बताया गया हैं। कुबेर की राजधानी अलकापुरी ( बदीनाथ से ऊपर) बताई जाती है। पुराणों के अनुसार राजा कुबेर के राज्य में आश्रम में ऋषि -मुनि तप व साधना करते थे। 

अंग्रेज इतिहास कारों के अनुसार हुण, सकास, नाग खश आदि जातियां भी हिमालय क्षेत्र में निवास करती थी। किन्तु पौराणिक ग्रन्थों में केदार खण्ड व मानस खण्ड के नाम से इस क्षेत्र का व्यापक उल्लेख है। इस क्षेत्र को देव-भूमि व तपोभूमि माना गया है। मानस खण्ड का कुर्मांचल व कुमाऊं नाम चन्द राजाओं के शासन काल में प्रचलित हुआ।कुर्मांचल पर चन्द राजाओं का शासन कत्यूरियों के बाद प्रारम्भ होकर सन 1790 तक रहा। सन 1790 में नेपाल की गोरखा सेना ने कुमाऊं पर आक्रमण कर कुमाऊ राज्य को अपने आधीन कर दिया। गोरखाओं का कुमाऊं पर सन 1790 से 1815 तक शासन रहा। सन 1815 में अंग्रजो से अन्तिम बार परास्त होने के उपरान्त गोरखा सेना नेपाल वापिस चली गई किन्तु अंग्रजों ने कुमाऊं का शासन चन्द राजाओं को न देकर कुमाऊं को ईस्ट इण्ड़िया कम्पनी के अधीन कर किया। इस प्रकार कुमाऊं पर अंग्रेजो का शासन 1815 से प्रारम्भ हुआ।

ऐतिहासिक विवरणों के अनुसार केदार खण्ड कई गढों( किले ) में विभक्त था। इन गढों के अलग राजा थे और राजाओं का अपने-अपने आधिपत्य वाले क्षेत्र पर साम्राज्य था। इतिहासकारों के अनुसार पंवार वंश के राजा ने इन गढो को अपने अधीनकर एकीकृत गढवाल राज्य की स्थापना की और श्रीनगर को अपनी राजधानी बनाया। केदार खण्ड का गढवाल नाम तभी प्रचलित हुआ। सन 1803 में नेपाल की गोरखा सेना ने गढवाल राज्य पर आक्रमण कर गढवाल राज्य को अपने अधीन कर लिया ।महाराजा गढवाल ने नेपाल की गोरखा सेना के अधिपत्य से राज्य को मुक्त कराने के लिए अंग्रजो से सहायता मांगी । अग्रेज सेना ने नेपाल की गोरखा सेना को देहरादून के समीप सन 1815 में अन्तिम रूप से परास्त कर दिया । किन्तु गढवाल के तत्कालीन महाराजा द्वारा युद्ध व्यय की निर्धारित धनराशि का भुगतान करने में असमर्थता व्यक्त करने के कारण अंग्रजो ने सम्पूर्ण गढवाल राज्य गढवाल को न सौप कर अलकनन्दा मन्दाकिनी के पूर्व का भाग ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन में शामिल कर गढवाल के महाराजा को केवल टिहरी जिले ( वर्तमान उत्तरकाशी सहित ) का भू-भाग वापिस किया।गढवाल के तत्कालीन महाराजा सुदर्शन शाह ने 28 दिसम्बर 1815 को टिहरी नाम के स्थान पर जो भागीरथी और मिलंगना के संगम पर छोटा सा गॉव था, अपनी राजधानी स्थापित की। कुछ वर्षों के उपरान्त उनके उत्तराधिकारी महाराजा नरेन्द्र शाह ने ओड़ाथली नामक स्थान पर नरेन्द्र नगर नाम से दूसरी राजधानी स्थापित की । सन1815 से देहरादून व पौडी गढवाल ( वर्तमान चमोली जिलो व रूद्र प्रयाग जिले की अगस्तमुनि व ऊखीमठ विकास खण्ड सहित) अंग्रेजो के अधीन व टिहरी गढवाल महाराजा टिहरी के अधीन हुआ।

भारतीय गणतंन्त्र में टिहरी राज्य का विलय अगस्त 1949 में हुआ और टिहरी को तत्कालीन संयुक्तप्रान्त का एक जिला घोषित किया गया। भारत व चीन युद्व की पृष्ठ भूमि में सीमान्त क्षेत्रों के विकास की दृष्टि से सन 1960 में तीन सीमान्त जिले उत्तरकाशी, चमोली व पिथौरागढ़ का गठन किया गया ।

एक नये राज्य के रुप में उत्तर प्रदेश के पुनर्गठन के फलस्वरुप (THE UP REORGANISATION ACT, 2000) उत्तरांचल की स्थापना दि० 9 नवम्बर 2000 को हुई। 

सन 1969 तक देहरादून को छोडकर उत्तराखण्ड के सभी जिले कुमाऊं कमिश्नरी के अधीन थे। सन 1969 में गढवाल कमिश्नरी की स्थापना की गई जिसका मुख्यालय पौडी बनाया गया । सन 1975 में देहरादून जिले को जो मेरठ कमिश्नरी में शामिल था, गढवाल मण्डल में शामिल करने के उपरान्त गढवाल मण्डल में जिलों की संख्या पॉच हो गयी थी जबकि कुमाऊं मण्डल में नैनीताल , अल्मोडा , पिथौरागढ , तीन जिले शामिल थे। सन 1994 में उधमसिह नगर और सन 1997 में रूद्रप्रयाग , चम्पावत व बागेश्वर जिलों का गठन होने पर उत्तराखण्ड राज्य गठन से पूर्व गढवाल और कुमाऊ मण्डलों में क्रमश छः छः जिले शामिल थे। उत्तराखण्ड राज्य में हरिद्वार जनपद के सम्मिलित किये जाने पर राज्य के गठन उपरान्त गढवाल मण्ढल में सात और कुमाऊं मण्डल में छः जिले शामिल हैं। दिनांक 01 जनवरी 2007 से राज्य का नाम उत्तरांचल से बदलकर उत्तराखण्ड कर दिया गया है। राज्‍य का स्‍थापना दिवस 9 नवम्‍बर को मनाया जाता है।


उत्तरांचल राज्य का सिरमौर कुमाऊ बैलट


कुमाऊँ का विस्तार व क्षेत्रफल 


कुमाऊँ या कूर्माचल मुख्यत: तीन जिलों में विभाजित है। 
१. अल्मोड़ा
२. नैनीताल
३. पिथौरागढ़ 
भारतवर्ष के धुर उत्तर में स्थित हिमाच्छादित पर्वतमालाओं, सघन वनों और दक्षिण में तराई-भावर से आवेष्टित २८०४'३ से ३००.४९' उत्तरी अक्षांस और ७८०.४४ से ८१०.४ पूर्वी देशान्तर के बीच अवस्थित भू-भाग 'कुमाऊँ' कहलाता है। सांस्कृतिक वैभव, प्राकृतिक सौंदर्य और सम्पदा से श्री सम्पन्न कुमाऊँ अंचल की एक विशिष्ट क्षेत्रीय पहचान है। यहाँ के आचार-विचार, रहन-सहन, खान-पान, वेशभूषा, प्रथा-परम्परा, रीति-रिवाज, धर्म-विश्वास, गीत-नृत्य, भाषा बोली सबका एक विशिष्ट स्थानीय रंग है। औद्योगिक वैज्ञानिकता के जड़-विकास से कई अर्थों में यह भू-भाग अछूता है। अपनी विशिष्ट सामाजिक संरचना में बद्ध यहाँ की लोक परम्परा मैदानी क्षेत्रों से पर्याप्त भिन्न है। लोक साहित्य की यहाँ समृद्ध वाचिक परम्परा विद्यमान है, जो पीढी-दर-पीढ़ी आज भी जीवन्त है। 
वनों के अन्धाधुन्ध कटान से यहाँ आज पर्यावरण-सन्तुलन गड़बड़ा गया है। कई दुर्लभ वनस्पतियाँ और जीव-जन्तु आज विलुप्त हो गये हैं या नामशेष रह गये हैं। कुमाऊँ क्षेत्र में अभी भी जैव सम्पत्ति का अक्षय भंडार है जिसका मुख्य कारण इस क्षेत्र के निवासियों का पशु पक्षियों एवं अन्य जानवरों के प्रति लगाव तथा उनके संरक्षण के प्रति जागरुकता ही है, जैसे धिनौड़ी (चड़ि), आदि पक्षियों के लिए घरों की छत के नीचे (सामान्यत: बन्धारी के नीचे) तिकोनी जगह छोड़ देना, जिनमें यह पक्षी स्वछन्द, उन्मुक्त एवं स्वतन्त्र जीवन व्यतीत कर सकें, धार्मिक स्थानों के आसप-पास विचरण कर रहे जानवरों को मारना अशुभ समझना तथा जानवरों को मारने के फलस्वरुप पाप लगने का व अनिष्ट होने का डर आदि। इसी मान्यता के अनुरुप ही बाघ, साँप, बन्दर आदि जानवरों को न मारना, सभी प्राणियों के प्रति दयाभाव व परम्परागत विश्वास ही इस क्षेत्र में वन प्राणियों के संरक्षण के प्रमुख कारण है।
इस क्षेत्र की परम्पराओं में उपलब्ध जैविकी का नृतात्विक विश्लेषण प्रस्तुत किया है। इन विभिन्न जैव पदार्थों से यहाँ के भिन्न-भिन्न लोक विश्वास भी जुड़े हैं। नीचे दिए गए जीवों से सम्बन्धित धारणाये, पारम्परिक मान्यतायें, आदि का विवेचन भी किया है। 
(Mollusca ) मौल्स्का 
१. कहुआ हाड़/कछवा हाड़ (कौड़/सीपी)
ये समुद्र के किनारे मिलते हैं। कुमाऊँनी लोग इन्हें बच्चों के गले में बाँधते हैं। लोक विश्वास है कि इनको बाँधने से बच्चों पर प्रेत बाधा का असर नहीं होता है। 
ओलाईगोकीटा (Oligochaeta ) वर्ग 
१. गिदौल /गदयूल (केंचुवा)
यह कुमाऊँ में सर्वत्र पाया जाता है। नम भूमि, खाद आदि स्थान इसका विशेष आवास है। कुमाऊँ में पहले प्रसवावस्था के दिनों में इन्हें पकाकर जच्चा को इसका सूप पिलाया जाता था। विश्वास किया जाता था कि इसके सूप से जच्चा में दूध की वृद्वि होती है। अब यह परम्परा समाप्त हो चुकी है (स्थानीय मान्यता)
मछली मारने वाले वंशी के काँटे में इसे फँसाकर चारे के रुप में भी इसका प्रयोग करते हैं। 
अरैक्निडा (Arachnida ) वर्ग 
१. बिच्छि (बिच्छू)
बिच्छु को तेल में पकाने के बाद उस तेल का खुजली में (विशेषतया गरदन वाले भाग में ) उपयोग किया जाता है। इस तेल का प्रयोग कान के दर्द में भी किया जाता है। 
क्रस्टोशिया (Crustacea ) वर्ग 
गँज्याड/ग्याँज/केकडा
यह ताल-तलैयों, नौलों व नदियों के किनारे में रहता है। लोग इसे पकड़कर मछली की भाँति खाते हैं। इसका सूप बड़ा स्वादिष्ट माना जाता है। केकड़े की हड्डी की भस्क कई रोगों में दवा के रुप में दी जाती है। 
कीट (Insecta ) वर्ग 
१. कुरमुल/कुरमुऊ (कुरमुला)
कुरमुले की छाल को सुखाकर पानी के साथ पीसकर देने से बच्चों के पेंट की 
जोंक खत्म हो जाता है।
२. किरमुल/किरमई/चींटी
चींटियों के बाँबियों से बाहर निकलने पर या अपने अण्डों को एक स्थान से दूसरेपर ले जाने की दशा में वर्षा की सम्भावना रहती है।
३. ग्वालि/ग्वाइ
किसी व्यक्ति के शरीर पर ग्वालि कीट के बैठने पर यह माना जाता है कि उसके लिए नए कपड़े बनेंगे। ग्वालि कीट सिर के जुँए के खा जाती है।
४. झिमौड़
लोक विश्वास है कि झिमौड़ के काटने से बुखार नहीं आता है। झिमौड़ के छत्ते को साँप की केंचुल, उड़द, राई और गाय के गोबर के साथ अभिमन्त्रित कर दूध न देने वाली गाय भैंस के थनों और मुँह के चारों और घुमाकर चौराहे में डाल देने पर गाय-भैंस दूध देने लगते हैं।
५. माख/मक्खी
घरेलु मक्खी को गुड़ एवं लाइकेन (पत्थर का दाद) के साथ मींचकर दाद पर लेप करने से दाद ठीक हो जाता है। 
६. मौन/मून (मधुमक्खी)
शहद और घी को बराबर मात्रा में मिलाने से विष बन जाता है (स्थानीय मान्यता)। मधुमक्खी को बच्चे (द्रद्वेद्रठ्ठे) खाये जाते हैं। मधुमक्खी का आस-पास मँडराना शुभ माना जाता है।
७. पास फेल किड़
इस कीड़े को हाथ में रखकर बच्चे अपने पास-फेल होने का अनुमान लगाते हैं। यदि यह पास कहने पर उड़ता है तो पास तथा फेल कहने पर उड़ता है तो फेल होने की पूर्व सम्भावना होती है। 
८. सुरमाई/चिमौली
यह हरे रंग का उड़ने वाला छोटा कीट है जो लकड़ी के घरों में छत की बल्लियों आदि में मिट्टी की बाँबी बनाता है। घर के अन्दर इसका बाँबी बनाना शुभ माना जाता है। 
काँण्ड्रिक्थीज (Chondrichthyes) वर्ग (pisces) 
१. माछ (मछली)
कुमाऊँ की नदियों में कई प्रकार की मछलियाँ पाई जाती है। इनमें 'अस्याव' मछली अधिक पसन्द की जाती है। लोक मान्यता है कि मछली के सिर वाले भाग को खाने से आँख की रोशनी तेज होती है।
इन्हें पकड़ने के लिए अल (बिच्छू घास की तरह का पौधा) से बनी जाली का प्रयोग करते थे परन्तु वर्तमान में मछली पकड़ने की जाली में नाइलौन का तागा प्रयोग करते हैं। काँटे (बंशी) से भी मछली पकड़ी जाती है। कुछ स्थानीय लोग तालाबों, नदियों में खीना, रामबाँस और लाल मिट्टी के मिले द्रव का प्रयोग ब्लीचिंग पाउडर की तरह करके मछलियाँ पकड़ते हैं। 
सरीसृप (Reptilia ) वर्ग 
१. ग्वाड़/ग्वाँ (गोट)
गोह को तेल में पकाकर उस तेल से मालिश करने पर बात रोग ठीक हो जाता है।
२. स्याँप (साँप)
साँपों की लड़ाई देखना अशुभ समझा जाता है। साँप की केंचुल दरवाजे के ऊपर रखने से मकान को न नहीं लगती और बच्चों को भूत प्रेत का डर नहीं लगता। साँप रास्ता काटे तो कार्य में बाधा आती है। बड़े साँप, नाग आदि शिव का अवतार माने जाते हैं। कुछ साँप मणि युक्त या पाँव वाले होते हैं। भाग्यवान लोग ही इन्हे देख पाते हैं। साँप की मणि मिलने पर व्यक्ति धनधान्य से पूर्ण हो जाता है। जीवित साँप की पूँछ सात बार माथे पर रगड़ने से सिरदर्द नहीं होता और न बुखार आता है। साँप की केंचुल की राख को सरसों के तेल में मिलाकर अंजन का लेप करने से आँखों के अधिकांश रोग ठीक हो जाते हैं। 
पक्षी (Aves) वर्ग 
१. कबूतर
वायु प्रसूत या लकवे की बीमारी में कबूतर का माँस खिलाया जाता है जिससे रोगी ठीक होता है।
२. काँव/काउ (कौवा)
कौवे का कड़क कर बोलना अशुभ होता है। कौवे का सिर पर पीटना अशुभ माना जाता है। प्रात: काल यदि आंगन में कौवा तीन बार काँव-काँव करे तो मेहमान के आगमन की पूर्व सूचना होती है। मकर संक्रान्ति के दिन कौवे का पूजन होता हे तथा तरह-तरह के पकवान, विशेषत: घुघुत (चार के अंक के आकार के आटे के घुघुत बनाकर व घी में तलकर) बनाकर कौवे को खिलाये जाते हैं। इस दिन कौवे का जूठा घुघुत यदि गाय भैंस को खिलाया जाता है तो मान्यता है कि उनकी बछियायें ही होंगी।
३. कुकुड़ (मुर्गी)
आम तौर पर मुर्गी का माँस खाया जाता है। मुर्गी के अण्डे को उबालकर छील लिया जाता है। फिर उसे रात भर नमक से ढक कर रखा जाता है। प्रात: उठते ही यह अण्डा सर्वप्रथम यदि पीलिया के रोगी को खिलाया जाए तो पीलिया ठीक हो जाता है। 
४. गौंताइ/गौताइ/गौंतार
यह चिड़िया घरों के अन्दर या बरामदे की छत पर मिट्टी का घोंसला बनाती है। इसका घोंसला बनाना शुभ माना जाता है। घोंसला टूटने की स्थिति में लोग सहारा देकर इसे बचाये रखते हैं। इन पक्षियों का झुण्ड बनाकर मँडराना वर्षा का सूचक होता है।
५. घिनौड़/पन चड़ि/गीण/चड़ि (गौरैया)
बच्चों की नाभि में सूजन आने की दशा में गौरेया की बीट लगाने से आराम रहता है। मम्स (Mumps ) पर गौरैया का बीट लगाने से वे ठीक हो जाते हैं। पहाड़ में घरों की छत के नीचे गौरैया के घोंसले के लिए लकड़ी में छेद (पिंजड़े) छोड़े जाते हैं।
६. घुघुत (फाख्ता)
इसका माँस वात के रोगी को दिया जाता है। वायु प्रसूत से पीड़ित महिला को घुघुत का माँस खिलाते हैं। 
७. चील
जमीन से उड़ती चील की छाया वाली मिट्टी पकाने पर मनोकामना पूर्ण होती है। 
८. टिट्याँ (टिटहरी)
इसके अण्डे की जर्दी (yolk ) को बार-बार सिर पर लगाने से सन्निपात (Typhoid ) ज्वर ठीक होता है। स्थानीय वैद्य इसके अण्डे को गाय या भैंस के ताजे गोबर में बन्द कर रखते हैं जिससे अण्डा फूटता नहीं और वर्षों सुरक्षित रहता है। 
९. तीतर
तीतर का माँस खाने से वात रोग ठीक हो जाता है। तीतर या किसी भी पक्षी का सिर नहीं खाया जाता है। इससे कुमाऊँनी में एक कहावत जुड़ी है - 'तीतर जतुक चतुर'।
१०. बाज/बूट्यों
आसमान में उड़ता बाज यदि स्थिर हो जाए तो वर्षा होने की सम्भावना होती है। थिरकते बाज को निशाना साध कर मारने से कई लाभ होते है, ऐसी मान्यता है।
११. मल्या (खंजन)
वात रोगी को मल्या का माँस देते हैं। वायु प्रसूत में भी इसका माँस उपयुक्त माना जाता हैं।
१२ मोर
यह कुमाऊँ के तराई भावर क्षेत्र में मिलते हैं। इसका पंख पवित्र व शुभ माना जाता है। उसका पंखों का प्रयोग ओझा लोग झाड़ फूँक में करते हैं। जले-कटे स्थान पर हाथ के बदले मोर-पंख से दवा लगाई जाती हैं। कान में मोर के पंजे को घिसकर डालने से कान का बहना बंद हो जाता है। मोर के पंख की डण्डी (rachis ) नाक-कान के छिद्रों में भी डाली जाती है क्योंकि यह माना जाता है कि इसको डालने से नाक-कान (छिद्र के पास) नहीं पकते हैं तथा साथ-साथ छिद्र भी बड़े होते हैं।
१३. लमूपुछिया/लमूपुछड़ी
प्रसूत की बीमारी में इसका शिकार खिलाने से बीमारी ठीक हो जाती है। इस पक्षी से कुमाऊँनी की "कुकुलि दी पान-पान" विषयक लोक कथा जुड़ी है।
१४. सिटौल/सिण्टालु/सिण्टई (देशी मैना)
शरीर के किसी हिस्से से यदि बाल गिरने लगते हैं तो इस पक्षी का खून लगाने से खैर सी यह बीमारी ठीक हो जाती है। इनका झुण्ड जब "साँप-साँप" कहकर चहकता है, तो आस-पास साँप या बिल्ली होते हैं। इससे कुमाऊँनी की एक कहावत भी जुड़ी है - "गू नि खूँ, गू नि खूँ, गू नि खूँ कि खूँ"।
१५. स्तनि (कस्तूरी मृग) 
१. नर कस्तूरी
मृग की नाभि से कस्तूरी निकालकर इसका प्रयोग कई प्रकार की दवाओं में किया जाता है।
२. गै/गोरु (गाय)
पेड़ पौधों को कीड़े-मकोड़ों से बचाने के लिए गाय का गोबर का भ (राख) ड़ाला जाता है। गाय के गोबर के कन्ड़ों की राख अनाजों में ड़ालने से कीड़ा नहीं लगता। गाय का दूध अनेक रोगों में लाभप्रद होता है। बातरोग में गाय के घी की मालिश की जाती है। गाय के दूध से बना मक्खन सिर पर मलने से ठंडक मिलती है। गाय का गोबर और मूत्र शुद्ध माना जाता है। शवयात्रा से लौटने, रुजस्वला होने, प्रसूता होने आदि में गोमूत्र सिर पर शरीर पर छिड़का और पिया जाता है। गोमूत्र अनेक रोगों को नष्ट करता है।
३. ध्वड़ (घोड़ा)
घोड़े के बाल से मुस्कुट (मस्से) काटने का काम लिया जाता है। घोड़े की लीद उबालकर, कपड़छान करके छने द्रव को पेट दर्द में देने से पेट दर्द कम हो जाता है। घोड़े की नाल को दरवाजे के ऊपर लगाने से मकान को न नहीं लगती। घोड़े की नाल की शनिवार को बनी अँगूठी पहनने से शनिश्चर की दशा का प्रभाव कम होता है। घोड़े की लीद विष्टा कूप (Sptic tank ) में ड़ालने से उसमें कीड़े उत्पन्न हो जाते हैं। घोड़े का मूत्र वायु, कफ और कृमिनाशक होता है।
४. चुथरौन/चुतरौल/चुतरौन
चुथरौल की हड्डी घिसकर नासूर में लगाने से नासूर ठीक हो जाता है। 
५. जड्यौ/जड़ीया (बारहसिंगा)
सिरदर्द में बारहसिंगे के सींग को पानी के साथ घिसकर लेप करने से सिरदर्द ठाक हो जाता है। मोतियाबिन्द में इसके सींग को घिसकर लगाने से लाभ मिलता है। इसके सींग को घिसकर कान में ड़ालने से कान का बहना बन्द हो जाता है। जड्यों का सींग मक्के की कलगी से दाने निकालने के काम भी आता है।
६. पणोद (उदबिलाव)
उदबिलाव का दीखना शुभ माना जाता है। इसका माँस गर्म तासीर वाला होता है।
७. बल्द (बैल)
बैल की खाल से ढ़ोल नगाढ़े आदि गढ़े जाते हैं। जब गाय-बैल पूँछ उठाकर एकाएक तेज भागते हैं या उछल-कूद करतै हैं तो वर्षा होती है।
८. बाकर (बकरी)
बकरी का पित्ताशय निगलने से आँखों की ज्योति बढ़ती है। बकरी का दूध स्वास्थ्यवर्धक माना जाता है। बकरी की सूखी मैगनी को पासकर घाव पर लगाने से घाव जल्दी ठीक हो जाता है। बकरी के आमाशय से हुडुक (Kettle-drum ) तथा त्वचा से ढ़ोलक मढ़ी जाती है। बकरी के पाँवों का सूप गर्म तासीर वाला होता है। बकरी की खाल को घरों में बिछावन की तरह प्रयोग करते हैं।
९. बाग (बाघ) चीता
बातरोग या बदन दर्द में इसकी चर्बी की मालिश से लाभ मिलता है। इसके नाखून और आदमी की मूँछ के बाल ताबीज में बन्द कर बच्चों के गले में बाँधने से उन्हें न नहीं लगती और उन्हें भूत-प्रेत का डर नहीं रहता। इसके कन्धे की हड्डी जो लाठी की तरह होती है सम्मोहन के काम में आती है।
१०. बिरालु/बिराउ (बिल्ली)
बिल्ली का रोना अशुभ होता है। मुँह के दाद को बिल्ली यदि अपने जीभ से चाटे तो दाद ठीक हो जाता है। पशुओं का टीला (खाँसी) की बीमारी में पीठे के साथ बिल्ली की विष्ठा देने से बीमारी ठाक हो जाती है। बिल्ली का सद्य: निसृत औंरा (फली, बीजाँडासन = placentra ) घर में सँभालकर रखना शुभ माना जाता है। कहीं जाते समय बिल्ली का रास्ता काटना अशुभ समझा जाता है। दो बिल्लियों का लड़ना अशुभ माना जाता है। बिल्ली और साँप अपना-अपना पूँछ हिलाकर मन्त्र युद्ध करते हैं इसमें जो हारता है वह मर जाता है ऐसी मान्यता है।
११. भालु (भालू)
गठिया बात में भालू की चर्बी से मालिश करने पर पुराना से पुराना गठिया बात रोग ठीक हो जाता है। भालू के पित्ताशय (gall bladder ) से मलेरिया रोग का उपचार किया जाता है। पित्ताशय सुरक्षित रखने का तरीका - भालू का पित्ताशय निकालकर उसमें साफ चावल के दाने भर दिए जाते हैं और इसे वायु शुष्क (Air dry) कर दिया जाता है। सूखने के बाद पित्ताशय के भीतर पीला पाउडर बन जाता है, जो लम्बी अवधि तक प्रयोग में लाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि भालू औरतों के साथ सम्भोग की इच्छा रखता है।
१२. भैंस तथा भैंसा/जती/जतिया
भैंस के गोबर का शरीर पर लेप करने और दूध, दही खाने से भैंसिया पित्ती (बड़ी पित्ती) ठीक हो जाती है। भैंस/भैंसा की खाल से ढोल-दमामौ मढ़े जाते हैं। भैंस/भैंसा के गोबर की भ पेड़ पौधों पर डालने से कीड़े-मकौड़े नष्ट हो जाते हैं। भैंस की बछिया की खाल की ट्यूब बनाकर तैरने में काम आती है। भैंस के ताजे खून में पाँव रखने से मसूर खुम (पैर के तलवे की कील) ठीक हो जाती है। जिन मन्दिरों में चैत या असौज में भैंस की बलि दी जाती है वहाँ उक्त कष्ट से पीड़ित रोगी उसमें पाँब रखते हैं। भैंस/भैंसा की जंगल में पड़ी सींग के ऊपर जमी फफूँद (fungus ) को निकाल कर लगाने से कण्ठ (गर्दन) खुजली ठीक हो जाती है। भैंस या भैंसा का मूत्र बवासीर में लाभप्रद होता है। यह उदर के रोगो में भी लाभप्रद होता है। गाय-भैंसों को जब 'छिपड़ी' नामक बीमारी होती है तो उनके नाक मुँह सूख जाते हैं, आँतों में छिपकली जैसी आकृति बन जाती है। भैंस की खाल का रंग लाल हो जाता है। इस बीमारी के इलाज के लिए लोग गाय या भैंस की आँतों में बने छिपकलियों की आकृति के माँस को टुकड़ों को निकाल लेते हैं और उन्हें सुखा लेते हैं। जब गाय भैंसों को यह बीमारी होती हैं तो छिपकली के आकार के ये माँस के टुकड़े पानी में घिसकर, गाय के छिपड़ो को बीमार भैंस को तथा भैंस को छिपड़ों को बीमार गाय को देते हैं, जिससे उनकी बीमारी तुरन्त ठीक हो जाती है।
१३. मुस (चूहा)
महिलाओं को प्रसूत की बीमारी में चूहे का शिकार खिलाने से लाभ मिलता है। चूहे का शिकार सद्य: प्रसूता को देने से उसका दूध बढ़ जाता हैं। इसका शिकार खाने से बवासीर के मस्से गिर जाते हैं। चूहे का शिकार आँव की बीमारी में भी लाभप्रद होता है। चूहे की विष्टा को ककड़ी के बीजों के साथ पीसकर नाभि पर लगाने से तुरन्त पेशाब हो जाती है। चूहे का शिकार आँखों की रोशनी बढ़ाता है। चूहे के बिल से निकली मिट्टी मुस्कुटों पर रगड़ने से वे ठीक हो जाते हैं।
१४. स्याल/स्याव (सियार)
सियार की खाल से ढोल-दमौं मढ़े जाते हैं। फ्यौण (एक विशेष सियार) यदि तीन बार भौंके, तो किसी की निश्चित ही मृत्यु होती है। लिंग और दोनों अंडकोष दबाने से सियारों का भौंकना बंद हो जाता है। इस जानवर को बहुत चतुर माना जाता है तथा इससे यह कहावत जुड़ी है - "स्यावक जसि बुद्धि है जॉ"।
१५. सॅस (खरगाश)
दमा की बीमारी में खरगोश का माँस लाभप्रद होता है। 
१६. सङ्र/सुअर
दमा के रोगी के सुअर का माँस खिलाया दाता है। सुअर के कान की हड्डी घिसकर कान में ड़ालने से कानदर्द ठीक हो जाता है। सुअर की नाभि को घिसकर दमा के रोगी के कण्ठ में लेप करने से आराम मिलता है। सुअर का पित्ताशय शरीर का तापमान बढ़ाने के काम आता है। शरीर का तापमान कम होने पर पित्ताशय पानी में घोलकर पिलाने से शरीर का तापमान बढ़ा जाता है। वैद्य लोग सुअर के पित्ताशय को भालू के पित्ताशय की ही भाँति सुरक्षित रखते हैं। 
१७. सौल/शौल/साही
साही के बालों की कलमें बनती हैं। साही का काँटा यज्ञोपवीत में काम आता है। साही का काँटा किसी के घर में रख दिया जाता है तो उस परिवार के सदस्यों में आपस में झगड़ा होता रहता है। बात रोग में इसका माँस खाने लाभप्रद होता है।
इन पशु-पक्षियों व जानवरों के प्रति दयाभाव व इनसे जुड़ी परम्परागत मान्यताओं के बावजूद इनकी संख्या का निरंतर कम होना विचारणीय (विषय) प्रश्न है। इन पशु-पक्षियों के संरक्षण के प्रति सजग रहकर हिमालय की इस अमूल्य धरोहर को हमें बचाना होगा। 

उत्तरांचल की महान लोक कला

पर्वतीय क्षेत्र में महिलाओं द्वारा विविध अवसरों पर नित्य प्रति के साज-सामान से विभन्न अलंकरणों को गैरिक पष्टभूमि पर इस प्रकार से उकेरा जाता है कि अच्छा भला चित्रकार भी शरमा जाए। रंग संयोजन की इस शैली में वे आकृति परक चित्रांकन आते हैं जिनसे कभी कभी तो मात्र प्राकृतिक रंगों जैसे गेरु और पीसे हुए चावल के घोल से अंकन कर भव्य आकतियों को जन्म दिया जाता है। टोपण की यह समृद्ध लोक परंपरा योजना समूचे भारत में अलग-अलग मानों से जानी जाती है। उत्तर प्रदेश में चौक पूरना, राजस्थान में मांडना, सौराष्ट्र में साथिया, साहाराष्ट्र व दक्षिण भारत में रंगोली व कोलम, बंगाल में अल्पना नाम से यह कला जानी जाती है जिसमें स्थानीयता के प्रभाव से अलंकरणों में विभेद होता रहता है। कुमा में प्रत्येक व्रत-त्योहार, उपनयन संस्कार, पूजा नामकरण, विवाह, छठी आदि शुभ पर्वों? पर भूमि अलंकरण बनाने की परंपरा है। इसलिए स्थानीय लोक जगत ने अपने पास की सरलता से उप्लब्ध होने वाली वस्तुओं का प्रयोग खाली स्थानों व आंगन को संवारने में किया। ताकि इन स्थानों का अलंकरण कर घर-द्वारों को सुरुचिपूर्ण और मंगलमय बनाया जा सके।

टोपण का अर्थ है - लीपना। वैसे लीप शब्द का अर्थ है अंगुलियों से रंग लगाना, न कि तूलिका से रंग भरना। टोपम की इस विधा में गेरु की पृष्ठभूमि पर पिये चावल के धोल से अथवा कमेछ मिट्टी से अलंकरण किये जाते हैं। लगातार अभ्यास से दक्ष अंगुलियाँ टेपण की योजना को मनोहारी रुप देने लगती है। टेपण का सृजन अंदर से बाहर की ओर होता है। केन्द्र की विषयवसुतु का अंकन सर्वप्रथम तथा उसके बाद धीरे-धीरे परिधि की ओर विस्तार होता है। केन्द्र में दो चित्र अंकित किया जाता है वह प्रायः निश्चित अवयवों और परंपराओं के आधार पर यंत्र के सादृश्य अनूकृति से परिपूरित होता है जिसमें आधा ज्यामितीय हो सकते हैं। मध्य में कलाकार को कल्पना की छूट नहीं है जबकि बाह्म भाग कल्पना की निश्चित छूट से हो सकता है, इस भाग में बैलबूटे, डिज़ाइन बनाई जाती है। विषय परंपरा के अनुसार पूर्व निर्धारित हो सकते हैं।

रुप विन्यास और आलेखनों को अलंकृत करने की जगह को आधार मानकर टेपण को क्रमशः भूमि टेपण, चौकी टेपण, दीवार टेपण तथा वस्तु परक टेपण आदि में वर्गीकृत कर सकते हैं। भूमि टेपण के अन्तर्गत भूमि पर विशेष चौकियों व यंत्रों का निर्माण होता है। चौकियों पर अलंकृत होने वाले टेपण वे हैं जिनके लिए भूमि की अपेक्षा लकड़ी की चौकियों पर अवसर विशेष के लिए टेपण बनाई जाती हैं। दीवार पर बनने वाले अलंकारिक टेपणों को दीवार टेपण नाम दिया गया है। जबकि सूप कांसे की थाली आदि पर बनने वाले टेपण वस्तु पूरक माने जाते हैं।

इस कला में सूर्य, चन्द्र, स्वास्तिक, नाग, शंख, धंटा, विभिन्न प्रकार के पुष्प, तरह-तरह की बेलें व अन्य ज्यामितीय आकृतियां बनाई जाती हैं। बहुतायत से प्रयुक्त होनो वाले देव प्रतीक बुरी आत्माओं से रक्षा व लोक कल्याण का भाव अपने में समेंटे हुए हैं। छोटी मोटी लोक कथाएं व धार्मिक विश्वास इन अकृतियों के प्रेणा स्रोत रहे हैं। साथिया व स्वास्तिक अथवा खोड़िया सभी लोक कलाओं का अनिवार्य अंग है। इसके बिना कोई भी अलंकरण पूरा नहीं होता। किसी भी शुभ कार्य में इस चिन्ह को गणेश की तरह सर्वप्रथम स्थापित किया जाता है। इसकी चार भुजाएं चार वर्ण, चार आश्रम, चार दिशाएं, व चार युग अथवा वेदों को इंगित करती हैं। यह शक्ति, प्रगति, प्रेरणा व शोभा की भी सूचक हैं।

भूमि टेपणों में शिव की पीठ, सकस्वती चौकी, महालक्ष्मी की चौकी, धूलिअध्र्य, चामुण्डा चौकी के अलावा देहली टेपण भी सम्मिलित हैं।

देहली द्वार में लगली, टपुकिया, मोतिचूर, सुनजई कोठा व आड़ा आदि बनाने की परम्परा है जिसको अनेक प्रतीकों बेलों व कमलदीपों से अलंकृत किया गया है। टेपण के अन्तगर्त बनाया जाने वाला धूलिअध्र्य, नमूना विवाह में गोधूली के समय मुख्य रुप से बनाया जाता है। इसका निर्माण वृत की अवस्था से होता है जो बेलों, लताओं द्वारा अलंकृत होकर घट सदृश बन जाता है। मध्य में हवनकुँड, अरिणी - समिधा, मांगलिक तिन्ह व लक्ष्मी के पदों का अंकन होता है। यहाँ घट की आकृति पर व वधू के कल्याण को दर्शाती है। यह ॠषि विवाह का सूचक है। कुमाऊँ में वर बधू को विष्णु व लक्ष्मी के प्रतीक के रुप में मान दिया जाता है। इस टेपण को विष्णु का स्थान मानकर इस पर वर को आसन दिया जाता है। कुछ लोग धूलीअध्र्य को वृक्ष सदृश मानके हैं। 

दीपावली के अवसर पर बनने वाली लक्ष्मी की पदावलियां घर, आंगन, देहली, फर्श, सीढियौं, द्वारों व कक्षों में अंकित होती हैं। सहिलाएं मुट्ठी को बन्द करके घर के बाहर से अन्दर की ओर जाते हुए लक्ष्मी के पैर गेरु के धरातल पर बिस्वार से बनाती हैं। मुट्ठी के छाप से बनी आकृति के ऊपर अंगूठा बनाया जाता है। दो पैरों के बीच रिक्त स्थान पर गोल चिन्ह बनाया जाता है जो पुष्प आकृति का भी हो सकता है। यह चिन्ह लक्ष्मी के आसन कमल अथवा धन का प्रतीक होता है। पूजा कक्ष में भी लक्ष्मी के चौकी बनाये जाने का प्रचलन है। चौकी पर धन ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी को गन्ने के टुकड़ों से निर्मित कर स्थापित किया जाता है तथा इसको स्थानीय वेशभूषा से सज्जित कर आभूषणों से आभूषित किया जाता है।

हरिबोधनी एकादशी या बूढ़ी दीपावली को भुईंया बनायी जाती है जिसे अहितकारी दैत्य आत्मा माना जाता है। यह दरिद्रता का प्रताक माना है। इसको आंगन में अंकित कर महिलाएँ आलेखित सूप में, ब्रह्ममूहूर्त में, गन्ना, दाड़िम, अखरोट पर पुष्प डालकर उसके पास आकर उसे भगाती हैं। सूप में रखी गई सामग्री को भुईंया के स्थान पर रखकर सूप में अंकित लक्ष्मी - नारायण के साथ घर में प्रवेश करती हैं। भुईंया का स्वरुप कीट की भांति दर्शाया जाता है।

सरस्वती चौकी फर्श पर निर्मित होती है। इस, अलंकरम में केन्दिर को बिन्दु रखकर उसके चारों ओर डिजायनें बनायी जाती है। यह वृत के रुप में होती है। मुख्य दैविक शक्तियों को त्रिभुज के द्वारा व्यक्त किया जाता है। यह त्रिभुज सोलह कमलदल से आवृत होता है। इसके चारों ओर बिन्दु या वृत बनाये जाते हैं। कभी - कभी सरस्वती को पंच भुजाकार तारे से भी चित्रित केया जाता है अथवा जनेऊ धारण करवाया जाता है।

शिव की पीठ नामक टेपण को शिव पूजन केलिए पूजा कक्ष अथवा पार्थिव पूजन के समय अंकित किया जाता है। मध्य में धन (+) चिन्ह यास्वास्तिक बनता है जो जीवन के चार मार्गों को प्रतीकात्मक प्रदर्शन है। यह चारों मार्ग केन्द्र सेजुड़ते हैं। इसे कई क्षैत्ज व लम्बवत् समानान्तर रेखाओं के संयोजन से बनाया जाता हैं ; मध्य में जिह्मवा बनायी जाती है।

दीवारों पर अंकित होनेवोले टेपणों में थापे व टुपुक प्रमुख हैं। टुपुक रसोईघर में दो #्लग-#्लग तरह से बनाये जाते हैं। नाता नामक अल्पना कुमाऊँनी रसाईकी प्रमुख आभूषण है। शाह परिवारों में मेष संक्रान्ति के अवसर पर यह रसोई घरकी दीवार पर बनायी जाती है। परिवार के सदस्यों को स्नेह के बन्धन में बाँघने की अभिव्यक्ति के रुप में इस डिजायन का चित्रण किया जाता है। अनाज की बालियों को समृद्धि के प्रतीक को रुप में एक दूसरे से जोड़कर अंगुलियों के रुप में मानवरुपी रेखाचित्र बनाये जाते हैं बायीं ओर की आकृतियाँ लक्ष्मी तथा दाहिनि ओेर की विष्णु की प्रतीक समझी जाती हैं। इनके दाहिनी ओर ब्रह्मा, विष्णु और महेश बनाये जाते हैं। मंच का अंकन कर सीढ़ी और बालियां दर्शायी जाती हैं। इसके मध्य में त्रिभुज बनाकर बिन्दु बनाया जाता है। यह डिजायन बौद्ध कला के 'चैत्य' से साम्य रखता है। 

लक्ष्मी पूजन के लिए कांसे की थाली पर अथवा कागज के पट्टे पर लक्ष्मी अल्पना व थापे अंकित किये जाते हैं। थापे में चारों दिशाओं की ओर चार हाथी धन-धान्य व समृद्धि के प्रतीक के रुप में लक्ष्मी पर पवित्र जल अर्पित करते हुए दर्शाये जाते हैं। हाथी मेघों के भी प्रतीक समझे जाते हैं। पृथवी की समृद्धि वर्षा पर निर्भर है। कमलासन उर्वरता एवं विकास को लिए हुए है और लक्ष्मी धन, यश, वैभव व समृद्धि और मंगल की देवी है।

इस अल्पना में लक्ष्मी को चतुर्भुजी निरुपित किया जाता है। लक्ष्मी के नीचे खोरिया या स्वास्तिक आसन या पादपीठ के प्रतीक के रुप में बनाया जाता है। चौकी के दोनों ओर लक्ष्मी के पदचिन्ह तथा निचले कोनों पर जल कुँड निर्मित करने का विधान है जिनसे लेकर हाथी देवी पर जल चढ़ाते हैं, दर्शाये जाने की परम्परा है। लक्ष्मी के दोनों ओर युगल हाथी फूलमाला डालने को तैयार बनाये जाते हैं। इस अल्पना के किनारे को लक्ष्मी के पदचिन्हों से सुसज्जित बनाया जाता है।

कुमाऊँ क्षेत्र के टेपण तंत्र से भी अन्तर्सम्बन्ध रखते प्रतीत होते हैं। वैसे लगभग सभी आकृतियाँ प्रतीकात्मत हैं। सुष्टि की उत्पति शिव और शक्ति के संयोजन से हुई है। इन दोनों शक्तियों को त्रिभुज के माध्यम से व्यक्त किया जाता है। ये दोनों त्रोभुज आपस में एक दूसरे का काटते हुए अधोमुखी तथा उध्वर्मखी बनाये जाते हैं। त्रिभुज के तीनों बिन्दु महालक्ष्मी, महाकाली व महासरस्वती के प्रतीक भी माने जाते हैं। तंत्र में बीज या विन्दु को सृष्टि का आधार माना जाता है। बिन्दु से महाबिन्दु की उत्पति शिव तथा शक्ति के मिलन से हुई है। शक्ति के साकार रुप में ही शिव का निराकार रुप अपना आकार ग्रहण करता है, शिव शक्ति का संयोजन स्थल मिश्र बिन्दु कहलाता है। यही त्रिकोण को तीन स्थल पर संयुक्त रुप देता है। अधोमुखी त्रिभुज जल और उध्वर्मुखी अग्नि का प्रतीक समझे जाते हैं। त्रिभुजों के बीच का स्थान जीवन की क्षणभंगुरता को दर्शाता है। त्रिभुजों को घेरने बाले बृत ब्रह्मांड के प्रतीक हैं। इनको कमल दल से अलंकृत करने का विधान है। कमलदल जीवन की पवित्रता को आभासित करते हैं। बिन्दु का प्रयोग सभी आलेखनों से बहुतायत से होता है; यह स्थायित्व का प्रतीक है कुछ विद्वान इसे अनंत, ब्रहमांड या आकाश का प्रतीक मानते हैं। वर्ग पृथ्वी को प्रदर्शित करता है। डिजायनों में प्रयुक्त वृत संसार की गतिक अवस्था का भाव लिए है। यह नाद को व्ययक्त करता है। टेपण में प्रयुक्त मछली सौभाग्य का, गाज बुद्धि का तथा अनंत का प्रतीक है। टेपण में पूजन की सामग्री को भी प्रमुखता से सअथान मिला है। शुभ की कामना से दीपक शंख, घंटी, का अंकन स्वतंत्रता से कलाकारों द्वारा किया जाता है।

अल्पना का सृजन अन्दर से बाहर की ओर होता है। केन्द्र की विषयवस्तु का अंकन सर्वप्रथम तथा उसके बाद धीरे - धीरे परिधि की ओर विस्तार होता है। केन्द्र में बनाया जानेवाला चित्र निश्चित अवयवों और परम्पराओं के आधार पर तंत्र अभिप्राय के सदृश आकृति लिए निरुपित किया जाता है, जिसमें ज्यामितीय आधार हो सकते हैं।

केन्द्र में बननेवाले वृत के अन्दर मुख्य संस्कार सम्बन्धी चित्र तथा समकोण पर काटती दो ॠजु रेखायें बनायी जाती हैं। ये रेखायें वैदिक काल में हवन प्रज्वलित करने के लिए प्रयुक्त अरणी के प्रतीक हैं। इस वृताकार चित्र पर पूजा की सामग्री तथा पुरोहित के लिए उपहार रखें जाते हैं।

कुमाऊँनी लोक कला में निश्चित लोक तत्व निहित हैं। कमलदल सबसे अधिक प्रयुक्त होनोवाला पुष्प है। जबकि वृक्ष जैसी आकृतियाँ बहुतायत से प्रयुक्त हुई हैं। धूली अध्र्य को कुछ लोग घट तथा कुछ लोग शाखाओं सहित वृक्ष मानते हैं। सम्भवतः वृक्ष ने फलने - फूलने की प्रवृति और सम्पन्नता से सम्बन्ध रखने के कारण स्थान पाया होगा। सितारों को सप्तर्षि के रुप में जनेऊ चौकी में आलेखित कोया जाता है। डॉ जगदीश गुप्त द्वारा वर्गीकरणहो सकता है। आकारीय स्वरुप के आधार पर कुछ टेपण रेखा प्रधान जैसे गनेलिया व सांगलिया बेल, आकृति प्रधान जैसे थापे व प ज्यामिती प्रधान जैसे बरबूँद, क्षेपाक्षण प्रधान जैसे हाथ के थापे, कथा प्रधआन जैसी दुर्गाष्टमी, बटसावित्री पट्ट बहाकर बनाये जानेवाले जैसे वसुन्धरा, टपकाकर बनाये जाने वाले जैसे टुपुक, रंगाकन करनेवाले जैसे लंगावली का पिछौड़ा, सीमाबद्ध जैसे हिमांचल, स्वतंत्र शैली जैसे घुइयां लक्ष्मी - यंत्र आदि।

आधुनिकता की होड़ में जबकि विश्वास निरन्तर जड़ हेते जा रहे हैं, महिलाओं द्वारा संजायी गयी इसकला के प्रतिमान कम से कम पर्वतीय क्षेत्र में अभी भी सेरक्षित रखने कीप्रवृति में ह्रास नहीं हुआ है। यह अलग बात है कि प्राकृतिक रंगों के स्थान पर सिंथेटिक रंगों का प्रचलन बढ़ रहा है। इसका परिणाम है कि जो सुघड़ता और लोच गेरुई पृष्टभूमि पर बिस्वार अथवा कमेठ से आभासित होती है उसके स्वरुप में लोकतत्व का ह्रास न आने लगा है।

उत्तरांचल राज्य का सिरमौर कुमाऊ बैलट

भिटौली – उत्तराखण्ड में महिलाओं को समर्पित एक विशिष्ट परम्परा


उत्तराखण्ड राज्य में कुमाऊं-गढवाल मण्डल के पहाड़ी क्षेत्र अपनी विशिष्ट लोक परम्पराओं और त्यौहारों को कई शताब्दियों से सहेज रहे हैं| यहाँ प्रचलित कई ऐसे तीज-त्यौहार हैं, जो सिर्फ इस अंचल में ही मनाये जाते हैं. जैसे कृषि से सम्बन्धित त्यौहार हैं हरेला और फूलदेई, माँ पार्वती को अपने गाँव की बेटी मानकर उसके मायके पहुंचा कर आने की परंपरा “नन्दादेवी राजजात”, मकर संक्रान्ति के अवसर पर मनाये जाने वाला घुघतिया त्यौहार आदि.
उत्तराखण्ड की ऐसी ही एक विशिष्ट परम्परा है “भिटौली”. भिटौली का शाब्दिक अर्थ है – भेंट (मुलाकात) करना. प्रत्येक विवाहित लड़की के मायके वाले (भाई, माता-पिता या अन्य परिजन) चैत्र के महीने में उसके ससुराल जाकर विवाहिता से मुलाकात करते हैं. इस अवसर पर वह अपनी लड़की के लिये घर में बने व्यंजन जैसे खजूर (आटे + दूध + घी + चीनी का मिश्रण), खीर, मिठाई, फल तथा वस्त्रादि लेकर जाते हैं. शादी के बाद की पहली भिटौली कन्या को वैशाख के महीने में दी जाती है और उसके पश्चात हर वर्ष चैत्र मास में दी जाती है. यह एक अत्यन्त ही भावनात्मक परम्परा है. लड़की चाहे कितने ही सम्पन्न परिवार में ब्याही गई हो उसे अपने मायके से आने वाली “भिटौली” का हर वर्ष बेसब्री से इन्तजार रहता है. इस वार्षिक सौगात में उपहार स्वरूप दी जाने वाली वस्तुओं के साथ ही उसके साथ जुड़ी कई अदृश्य शुभकामनाएं, आशीर्वाद और ढेर सारा प्यार-दुलार विवाहिता तक पहुंच जाता है.
burans_flowerउत्तराखण्ड की महिलाएं यहाँ के सामाजिक ताने-बाने की महत्वपूर्ण धुरी हैं. घर-परिवार संभालने के साथ ही पहाड़ की महिलाएं पशुओं के चारे और ईंधन के लिये खेतों-जंगलों में अथक मेहनत करती हैं. इतनी भारी जिम्मेदारी उठाने के साथ ही उन्हें अपने जीवनसाथी का साथ भी बहुत सीमित समय के लिये ही मिल पाता है क्योंकि पहाड़ के अधिकांश पुरुष रोजी-रोटी की तलाश में देश के अन्य हिस्सों में पलायन करने के लिये मजबूर हैं. इस तरह की बोझिल जिन्दगी निभाते हुए पहाड़ की विवाहित महिलाएं इन सभी दुखों के साथ ही अपने मायके का विछोह भी अपना दुर्भाग्य समझ कर किसी तरह झेलने लगती हैं. लेकिन जब पहाड़ों में पतझड़ समाप्त होने के बाद पेड़ों में नये पत्ते पल्लवित होने लगते हैं और चारों ओर बुरांश व अन्य प्रकार के जंगली फूल खिलने लगते हैं तब इन महिलाओं को अपने मायके के बारे में सोचने का अवकाश मिलता है. इस समय खेतों में काम का बोझ भी अपेक्षाकृत थोड़ा कम रहता है और महिलाएं मायके की तरफ से माता-पिता या भाई के हाथों आने वाली “भिटौली” और मायके की तरफ के कुशल-मंगल के समाचारों का बेसब्री से इन्तजार करने लगती हैं. इस इन्तजार को लोक गायकों ने लोक गीतों के माध्यम से भी व्यक्त किया है, “न बासा घुघुती चैत की, याद ऐ जांछी मिकें मैत की”।
ghughuti-birdजब महिला के मायके से “भिटौली” लेकर उसके माता-पिता, भाई-भतीजे पहुंचते हैं तो घर में एक त्यौहार का माहौल बन जाता है. उनके द्वारा लायी गई सामग्री को पड़ोस के लोगों में बांटा जाता है. शाम को “भिटौली” पकाई जाती है अर्थात खीर, पूरी, हलवा आदि पकवान बनते हैं और इसे खाने के लिये भी गांव-पड़ोस के लोगों को आमन्त्रित किया जाता है. इस तरह यह परम्परा पारिवारिक न रहकर सामाजिक एकजुटता का एक छोटा सा आयोजन बन जाती है.
वर्तमान समय में हालांकि दूरसंचार के माध्यमों और परिवहन के क्षेत्र में उपलब्ध सुविधाओं की बदौलत दूरियां काफी सिमट चुकी हैं लेकिन एक विवाहिता के दिल में मायके के प्रति संवेदनाएं और भावनाएं शायद ही कभी बदल पायेंगी. इसीलिये सदियों से चली आ रही यह परम्परा आज भी पहले की तरह ही कायम है. शहरों में रह रहे नये पीढी के लोग अब “वेलेन्टाइन डे”, “रोज डे”, “मदर्स-फादर्स डे” जैसे पाश्चात्य संस्कृति के ढकोसले भरे औपचारिक मान्यताओं की तरफ आकर्षित होने लगे हैं. ऐसे में इस बात की सख्त जरूरत है कि हम अपनी इस विशिष्ट परम्परा को औपचारिकताओं से ऊपर उठकर अपनाएं. आज बशर्ते शहरों में रह रहे लोग अपनी बहनों को मनीआर्डर या कोई उपहार भेजकर ही “भिटौली” की परम्परा का निर्वाह कर लेते हों, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी “भिटौली” सिर्फ एक रिवाज ही नहीं बल्कि प्रत्येक विवाहिता के लिये अपने मायके से जुड़ी यादों को समेटकर रखने का एक वार्षिक आयोजन है.

ऋतुओं के स्वागत का त्यौहार- हरेला


उत्तराखण्ड की संस्कृति की समृद्धता के विस्तार का कोई अन्त नहीं है, हमारे पुरखों ने सालों पहले जो तीज-त्यौहार और सामान्य जीवन के जो नियम बनाये, उनमें उन्होंने व्यवहारिकता और विज्ञान का भरपूर उपयोग किया था। इसी को चरितार्थ करता उत्तराखण्ड का एक लोक त्यौहार है-हरेला
हरेले का पर्व हमें नई ऋतु के शुरु होने की सूचना देता है, उत्तराखण्ड में मुख्यतः तीन ऋतुयें होती हैं- शीत, ग्रीष्म और वर्षा। यह त्यौहार हिन्दी सौर पंचांग की तिथियों के अनुसार मनाये जाते हैं, शीत ऋतु की शुरुआत आश्विन मास से होती है, सो आश्विन मास की दशमी को हरेला मनाया जाता है। ग्रीष्म ऋतु की शुरुआत चैत्र मास से होती है, सो चैत्र मास की नवमी को हरेला मनाया जाता है। इसी प्रकार से वर्षा ऋतु की शुरुआत श्रावण (सावन) माह से होती है, इसलिये एक गते, श्रावण को हरेला मनाया जाता है। किसी भी ऋतु की सूचना को सुगम बनाने और कृषि प्रधान क्षेत्र होने के कारण ऋतुओं का स्वागत करने की परम्परा बनी होगी।
उत्तराखण्ड में देवाधिदेव महादेव शिव की विशेष अनुकम्पा भी है और इस क्षेत्र में उनका वास और ससुराल (हरिद्वार तथा हिमालय) होने के कारण यहां के लोगों में उनके प्रति विशेष श्रद्धा और आदर का भाव रहता है। इसलिये श्रावण मास के हरेले का महत्व भी इस क्षेत्र में विशेष ही होता है। श्रावण मास के हरेले के दिन शिव-परिवार की मूर्तियां भी गढ़ी जाती हैं, जिन्हें डिकारे कहा जाता है। शुद्ध मिट्टी की आकृतियों को प्राकृतिक रंगों से शिव-परिवार की प्रतिमाओं का आकार दिया जाता है और इस दिन उनकी पूजा की जाती है।
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घर के भीतर बोया गया हरेला
हरेला शब्द का स्रोत हरियाली से है, पूर्व में इस क्षेत्र का मुख्य कार्य कृषि होने के कारण इस पर्व का महत्व यहां के लिये विशेष रहा है। हरेले के पर्व से नौ दिन पहले घर के भीतर स्थित मन्दिर में या ग्राम के मन्दिर के भीतर सात प्रकार के अन्न (जौ, गेहूं, मक्का, गहत, सरसों, उड़द और भट्ट) को रिंगाल की टोकरी में रोपित कर दिया जाता है। इससे लिये एक विशेष प्रक्रिया अपनाई जाती है, पहले रिंगाल की टोकरी में एक परत मिट्टी की बिछाई जाती है, फिर इसमें बीज डाले जाते हैं। उसके पश्चात फिर से मिट्टी डाली जाती है, फिर से बीज डाले जाते हैं, यही प्रक्रिया ५-६ बार अपनाई जाती है। इसे सूर्य की सीधी रोशनी से बचाया जाता है और प्रतिदिन सुबह पानी से सींचा जाता है। ९ वें दिन इनकी पाती (एक स्थानीय वृक्ष) की टहनी से गुड़ाई की जाती है और दसवें यानि कि हरेले के दिन इसे काटा जाता है। काटने के बाद गृह स्वामी द्वारा इसे तिलक-चन्दन-अक्षत से अभिमंत्रित (“रोग, शोक निवारणार्थ, प्राण रक्षक वनस्पते, इदा गच्छ नमस्तेस्तु हर देव नमोस्तुते” मन्त्र द्वारा) किया जाता है, जिसे हरेला पतीसना कहा जाता है। उसके बाद इसे देवता को अर्पित किया जाता है, तत्पश्चात घर की बुजुर्ग महिला सभी सदस्यों को हरेला लगाती हैं। लगाने का अर्थ यह है कि हरेला सबसे पहले पैरो, फिर घुटने, फिर कन्धे और अन्त में सिर में रखा जाता है और आशीर्वाद स्वरुप यह पंक्तियां कहीं जाती हैं।
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हरेले की थाली

जी रये, जागि रये
धरती जस आगव, आकाश जस चाकव है जये
सूर्ज जस तराण, स्यावे जसि बुद्धि हो
दूब जस फलिये,
सिल पिसि भात खाये, जांठि टेकि झाड़ जाये।{अर्थात-हरियाला तुझे मिले, जीते रहो, जागरूक रहो, पृथ्वी के समान धैर्यवान,आकाश के समान प्रशस्त (उदार) बनो, सूर्य के समान त्राण, सियार के समान बुद्धि हो, दूर्वा के तृणों के समान पनपो,इतने दीर्घायु हो कि (दंतहीन) तुम्हें भात भी पीस कर खाना पड़े और शौच जाने के लिए भी लाठी का उपयोग करना पड़े।}
इस पूजन के बाद परिवार के सभी लोग साथ में बैठकर पकवानों का आनन्द उठाते हैं, इस दिन विशेष रुप से उड़द दाल के बड़े, पुये, खीर आदि बनाये जाने का प्रावधान है। घर में उपस्थित सभी सदस्यों को हरेला लगाया जाता है, साथ ही देश-परदेश में रह रहे अपने रिश्तेदारो-नातेदारों को भी अक्षत-चन्दन-पिठ्यां के साथ हरेला डाक से भेजने की परम्परा है।
चैत्र मास के प्रथम दिन हरेला बोया जाता है और नवमी को काटा जाता है। श्रावण मास लगने से नौ दिन पहले आषाढ़ मास में बोया जाता है और १० दिन बाद काटा  जाता है और आश्विन मास में नवरात्र के पहले दिन बोया जाता है और दशहरे  के दिन काटा जाता है। हरेला घर मे सुख, समृद्धि व शान्ति के लिए बोया व काटा जाता है। हरेला अच्छी कृषि का सूचक है, हरेला इस कामना के साथ बोया जाता है कि इस साल फसलो को नुकसान ना हो। हरेले के साथ जुड़ी ये मान्यता भी है कि जिसका हरेला जितना बडा होगा उसे कृषि मे उतना ही फायदा होगा।
वैसे तो हरेला घर-घर में बोया जाता है, लेकिन किसी-किसी गांव में हरेला पर्व को सामूहिक रुप से द्याप्ता थान (स्थानीय ग्राम देवता) में भी मनाये जाने का प्रावधान है। मन्दिर में हरेला बोया जाता है और पुजारी द्वारा सभी को आशीर्वाद स्वरुप हरेले के तिनके प्रदान किय जाते हैं। यह भी परम्परा है कि यदि हरेले के दिन किसी परिवार में किसी की मृत्यु हो जाये तो जब तक हरेले के दिन उस घर में किसी का जन्म न हो जाये, तब तक हरेला बोया नहीं जाता है। एक छूट भी है कि यदि परिवार में किसी की गाय ने इस दिन बच्चा दे दिया तो भी हरेला बोया जायेगा।
उत्तराखण्ड में हरेले के त्यौहार को “वृक्षारोपण त्यौहार” के रुप में भी मनाया जाता है। श्रावण मास के हरेला त्यौहार के दिन घर में हरेला पूजे जाने के उपरान्त एक-एक पेड़ या पौधा अनिवार्य रुप से लगाये जाने की भी परम्परा है। माना जाता है कि इस हरेले के त्यौहार के दिन किसी भी पेड़ की टहनी को मिट्टी में रोपित कर दिया जाय, पांच दिन बाद उसमें जड़े निकल आती हैं और यह पेड़ हमेशा जीवित रहता है।

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