सोमवार, 30 अगस्त 2010

संस्कार तथा उत्सव

जातकर्म, नामकरण, व्रतवंध, विवाहादि संस्कार कहलाते हैं । और षष्ठी महोत्सव, जन्मोत्सव, अक्षरारंभ आदि कर्म उत्सव होते हैं । इन कर्मों के करने की विधि दशकर्म-पद्धति में है । कूर्माचल में कट्टरता ज्यादा है । इससे ये बातें बहुतायत से मानी जाती हैं । १६ संस्कारों के नाम ये हैं - 

१. गर्भाधान
२. पुंसवन
३. सामन्तोनयन
४. जातकर्म
५. नामकर्म
६. निष्कृमण
७. अन्नप्राशन
८. चूड़ाकर्म
९. उपनयन
१०. वेदारंभ
११. समावर्तन
१२. विवाह
१३. अग्न्याधान
१४. दीक्षा
१५. महाव्रत
१६. सन्यास


१. गर्भाधान संस्कार
सन्तान प्राप्ति के निमित्त रजोदर्शन के पश्चात् देवपूजन कर तथा समय निर्धारित कर सहवास किया जाता था । अब यह संस्कार प्राय: नहीं होता । अब प्रथम रजोदर्शन के बाद जो गणेश-पूजन होता है, वही शायद इसका रुपान्तर है ।

२. पुंसवन / ३. सीमन्तोनयन 
गर्भधारण के तीसरे महीने लगभग पुंसवन तथा आठवें महीने सीमन्तोनयन करने की विधि पहले होगी किनतु अब ये संस्कार नहीं होते ।

४. जातकर्म
नवजात शिशु के उत्पन्न होने पर सचैल स्नान कर कुछ पूजन की विधि थी, पर अब यह प्रथा भी प्राय: उठ गयी है ।

५. षष्ठी महोत्सव
बालक के जन्मदिन के छठे दिन रात्रि के समय यह उत्सव मनाया जाता है । षष्ठीपूजन, राहुबेधन नामक कर्म किये जाते हैं । पर ज्यादातर पुत्र की छठ होती है । पुत्री की छठ बिरले धनी पुरुष करते हैं । यह कोई संस्कार नहीं, केवल उत्सव है । गीत-वाद्य, मंगल-गान, मंत्र-पाठ, तिलक करके ब्राह्मण तथा इष्ट-मित्र, बंधु-बाँधवों के दावत दी जाती है । बड़ी धूम-धाम से यह उत्सव कुमाऊँ में मनाया जाता है ।

६. नामकर्म या नामकरण
संतान उत्पन्न होने के ११वें दिन बालक का नाम रखा जाता है । सूतिकागृह को गोमूत्र व पंचगण्य से प्रात: स्नान के अनन्तर शुद्ध किया जाता है । पश्चात् हवन व अन्य कर्मों से सूतिका की अस्पृश्यता दूर की जाती है । नक्षत्रानुसार नाम स्थिर करके एक वस्र में लिखकर प्रतिष्ठा उस वस्र से वेष्ठित शंख से बालक के कान में पिता नाम का उच्चारण करता है । सूर्यावलोकन भी आज ही होता है । ब्राह्मणों और बान्धवादिकों को भोज कराके तिलक भेंट देकर नामकर्म का विधान पर्ण होता है । 

७. अन्नप्राशन
यह संस्कार पुत्र का छठे या आठवे, महीने, कन्या का पाँचवे अथवा सातवें महीने शुभ लग्न और अनुकूल सुहूर्त में किया जाता है । वस्र, शस्र, पुस्तक, लेखनी, सुवर्ण रौत्यादि अनेक वस्तुऐं बालक के सामने रखी जाती है । जिस वस्तु को बालक छू ले, उसी वस्तु से उसको भविष्य में लाभ होने की संभावना होती हैं । जैसे पुस्तक के स्पर्श से विद्याजीवी पंडित होना, लेखनी से लेखक, शस्र स्पर्श से सैनिक, सुवर्ण से धनी व्यापारी आदि ।

८. जन्मोत्सव
यह जन्मवार भी कहा जाता है । यह जन्म-तिथि को प्रतिवर्ष मनाया जाता है । विशेषकर पुत्रों का उत्सव होता है, पुत्रियों का बहुत कम । ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य, गणेश के अलावा मार्कण्डेय, बलि, व्यास, परशुराम, अश्वव्थामा, प्रहलाद, हनुमान, विभीषण आदि की पूजा की जाती है । स्रियों में गीत-वाद्यादि प्रात:काल तथा सायंकाल दोनों वक्त होते हैं । 'पुवे' (गुलगुले) भी पकाये जाते हैं । इष्ट-मित्र, अड़ोसी-पड़ोसी को भी भोजन कराया जाता है । 

९. कणवेध
तीसरे या पाँचव वर्ष में कान छेदने का भी विधान है, पर कुमाऊँ में अब कोई-कोई करते हैं । ज्यादातर उपनयन-संस्कार के दिन कान छेदे जाते हैं ।

१०. चूड़ाकरण
इसका मुख्य काल तीसरा वर्ष है, पर यहाँ पर ज्यादातर चूड़ाकरण व्रतबंध के साथ करते हैं । बड़े-बड़े बाल उपनयन तक रखे जाते हैं, जिनमें बहुत सा मैल जम जाता है ।

११. अक्षराम्भ
बालक की पाँच वर्ष की अवस्था प्रारंभ होने पर शुभ मुहुर्त देखकर अक्षरारंभ-कर्म होता है । पहले पूजन वगैरह होता है । अब ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है ।

१२. उपनयन संस्कार
इसे व्रतबंध तथा जनेऊ-संस्कार भी कहते हैं । बालक इसी दिन से द्विज कहलाता है । व्रत ग्रहण करने तथा व्रत से बंध होने के कारण यह संस्कार व्रतबंध कहा जाता है । गुरु के समीप उपनीत होने से उपनयन संस्कार कहा जाता है । चुटिया, जनेऊ धारण करने तथा संध्या करने का अधिकारी इसी दिन से प्रत्येक बालक होता है । विद्यारंभ व वेदारंभ का यह समझा जाता है । 
कुमाऊँ में यह संस्कार बड़े आडम्बर से दो दिन होता है । पहले दिन ग्रहयाग, दूसरे दिन उपनयन अनेकानेक कर्म किये जाते हैं । ८ से २५ वर्ष को कर्म दो दिन में किये जाते हैं । बहुत धन इस काम में खर्च होता है । कहीं-कहीं 'गोठ' में, मकान के निचले खंड में, कहीं यज्ञशाला में यह संस्कार किया जाता है । इसी दिन गुरु-दीक्षा भी दी जाती है । दो-चार वेद-मंत्र पढ़ाये जाते हैं । काशी पढ़ने को भेजा जाता है, फिर लौटा लिया जाता है । प्राचीन पद्धति की एक नकलमात्र की जाती है ।

१३. विवाह-संस्कार
ज्योतिष के अनुसार जन्म-कुन्डली मिलाकर तथा लग्न ठहराकर विवाह होते हैं । माता-पिता विवाह करते हैं । अपने वर्ण तथा भिन्न गोत्र-कुल की कन्या से विवाह होता है । मातृकुल में, असपिंड पितृकुल में, असगोत्र कन्या से विवाह होता है । विवाहोक्त महीनों और शुक्र तथा गुरु के उदय में उत्तम मुहूर्त देखकर ज्योतिषशास्र पंडित विवाह का लग्न स्थिर करता है । कुछ दिन पूर्व गणपति-पूजन करके तिल और गुड़ मिश्रित तथा चावल की पिट्ठी के लड्डू (लाड़ू), महालड्डू (समाधिये) एवं सुआले (एक प्रकार की सुखाई हुई पूरी) बनाये जाते हैं । 
विवाह के दिन वर तथा कन्या-पक्ष में पूजनादि होता है । कन्या के माता-पिता व्रती रहते हैं । प्रात: सायंकाल के समय बरात चढ़ती है । कभी-कभी सुबह भी आती है । ब्राह्मणों तथा वैश्यों में ध्वजा (निशान) बरात में नहीं जाते । क्षत्रियों में जाते हैं । दरवाजे में बाग्दान के संकल्प के बाद वर पक्ष को जनवासे में ठहराया जाता है । वर को कच्चा (दाल, चावल आदि) तथा बरातियों को पक्का भोजन कराया जाता है ।

पुन: विवाह का मुहूर्त जब आता है । वर, आचार्यादि वर-पक्षी तथा कन्या-पक्षी विवाहशाला में अंतपंट (पर्दा) डालकर बैठते हैं । स्रियाँ मांगलिक गीत गाती हैं । शाखोच्चारादि के पश्चात् कन्यादान संकल्प होता है , और देवता तथा ब्राह्मणों से आशीर्वाद लेकर विवाह-संबंध स्थिर होता है । तत्पश्चात् शय्यादान के पश्चात् सप्तपदी मांगलिक हवन लाजा होम होता है । छोटी-मोटी पूजाऐं और भी होती है । विवाह की विधि पूरी करके प्रात:काल जलपान, भोजनादि करके, वर-वधु और बरातियों को तिलक करके बिदा कर दिया जाता है । वर-पक्ष के लोग बरातियों को दावत देकर तथा तिलक लगाकर बिदा करते हैं । चतुर्थ-रात्रि में होता है । पुन:१६ दिन के भीतर अथवा विषम वर्षों में द्विरागमन की रीति की जाती है ।

साधारणत: विवाह इसी प्रकार होता है । किंतु इनके अलावा अन्य वर्गों में और भी दस्तुर हैं, जिनका सूक्ष्म विवरण अन्यत्र जातिखंड में आवेगा । 
१४. अग्न्याधान
सव्तनीक सायं-प्रात: औतोग्नि या स्मार्ताग्नि में हवन करने की विधि है । यह संस्कार लुप्त हो चुका है । कुमाऊँ में एक कुटुम्ब अग्निहोत्री त्रिपाठियों का अल्मोड़ा में चंद-राज्य के समय से ऐसा करता आया है । यह अभी विद्यमान है । 

१५. दीक्षा
वैदिक मंत्रों की दीक्षा लेकर वेद के उपासना कांड में शास्रीय विधि से प्रवृत करने का यह प्राचीन संक्कार है । पर अब यह विलुप्त हो चुका है । कुछ इने गिने लोग सूर्यग्रहनादि में किसी योग्य पंडित से मंत्र-दीक्षा लेकर गुरु बनाते हैं । स्रियाँ जप करती हैं । यही इस संस्कार का कपोता विशेष है । 

१६. महाव्रत
गृहस्थाश्रम को त्यागकर निवृत्ति-मार्ग में प्रवृत हो वानप्रस्थाश्रम में प्रवृष्ट होने का प्राचीन नियम था । इस संस्कार को भी बिरले ही करते हैं ।

१७. सन्यास
वानप्रस्थाश्रम के पश्चात् विधि-पूर्वक संस्कार द्वारा गुरु-दीक्षा लेकर 'कुटीचर, हंस, परमहंस' की पूर्ण पदवी प्राप्त करने का नियम था । संसार की सब माया-मोह रुपी वासना छोड़कर केवल भगवान की सेवा में सारा समय व्यतीत करने का नियम था । पर इसको भी अब इने-गिने लोग करते है । वैसे जोगी-साधु बहुत बनते हैं, पर सब मतलब के साधु-सन्यासी हैं । संसार-त्यागी व लोकोपकारी साधु कम देखने में आते हैं । 

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