जबकि नगर के लोग चतुर, चालाक व चंचल प्रकृति के होते हैं, देहात के लोग ज्यादातर सीधे-सादे व सरल स्वभाव के पाये जाते हैं । पर कुमाऊँ की साधारण जनता सामान्य शिक्षित होने पर भी काफी समझदार है । अल्मोड़ा नगर के लोग तो सब प्रकार धनवान, विद्धान, गुणवान व सम्पतिवान हैं, पर उनमें 'स्व' की मात्रा ज्यादा होती है । यदि ऐसा न होता, तो संसार भर के लोगों में वे किसी बात में कम न होते । इसका कारण यह है कि साधारण कुमय्यों का उद्देश्य आज तक अनपढ़ों की खेती, स्वल्प पढ़ों का क्षुद्र चाकरी तथा ज्यादा पढ़ों का नौकरी रहा है । वाणिज्य, व्यवसाय तथा कला-कौशल से ही प्रत्येक जाति उत्पन्न होती है । यहाँ पर लेखक, कवि, राजनीतिज्ञ तथा कुछ राजभक्त कर्मचारी व साधारण व्यापारी हुए हैं जिनका नाम तमाम भारतवर्ष में प्रचलित है । वे भारत के प्राय: अनेक प्रांतों में, पर विशेषत: संयुक्त प्रांत में अच्छे-अच्छे सरकारी पदों को सम्मानपूर्वक सुशोभित करतो हैं । देश-सेवा में कुमाऊँ का नाम उज्जवल करने वाले राष्ट्रीय नेता पे. गोविंदवल्लभ पंत हैं । वे अपनी विद्वता, त्याग, तपस्या व देश-सेवा के कारण राजनीतिक क्षेत्र में अखिल भारतवर्षीय ख्याति पाई है । चिकित्सा में स्वनाम धन्य डॉ. नीलाम्बर चिन्तामणि जोशीजी ने कुर्माचलियों का नाम तमाम भारत में प्रख्यात किया है । हिन्दी जगत् में नाम कमाने वाले डॉ. हेमचन्द्र जोशी तथा कविवर सुमित्रानंदन पंत हैं । उधर डॉ. लक्ष्मीदत्त जोशीजी ने उच्च कानूनी शिक्षा प्राप्त कर कुमाऊँ का मान बढ़ाया है । |
सोमवार, 30 अगस्त 2010
कुमाऊँ के मनुष्यों के गुण, स्वभाव व कर्म
मृतक-कर्म की रीतियाँ
वृद्धावस्था प्राप्त हो जाने पर पुत्रवान कुटुम्बी, आस्तिक धनी काशीवास कर लेते थे, अथवा अन्यत्र कहीं गंगा-तट पर निवास करके ईश्वर-भजन करते थै । पर अब लोग पुत्रादि के समीप रहना आवश्यक समझते हैं । मृत्यु के समय गीता और श्रीमद्भागवतादि का पाठ सुनना, रामनाम का जप करना स्वर्गदायक समझा जाता है । गोदान और दश-दान कराके, होश रहते-रहते मृतक को चारपाई से उठाकर जमीन में लिटा दिया जाता है । प्राण रहते गंगा जल ड़ाला जाता है । प्राण निकल जाने पर मुख-नेत्र-छिद्रादि में सुवर्ण के कण ड़ाले जाते हैं । फिर स्नान कराकर चंदन व यज्ञोपवीत पहनाये जाते हैं । शहर व गाँव के मित्र, बांधव तथा पड़ोसी उसे श्मशान ले जाने के लिए मृतक के घर पर एकत्र होते हैं । मृतक के ज्येष्ठ पुत्र, उसके अभाव में कनिष्ठ पुत्र, भाई-भतीजे या बांधव को मृतक का दाह तथा अन्य संस्कार करने पड़ते हैं । जौ के आटे से पिंडदान करना होता है । नूतन वस्र के गिलाफ (खोल) में प्रेत को रखते हैं, तब रथी में वस्र बिछाकर उस प्रेस को रख ऊपर से शाल, दुशाले या अन्य वस्र ड़ाले जाते हैं । मार्ग में पुन: पिंड़दान होता है । घाट पर पहुँचकर प्रेत को स्नान कराकर चिता में रखते हैं । श्मशान-घाट ज्यादातर दो नदियों के संगम पर होते हैं । पुत्रादि कर्मकर्ता अग्नि देते हैं । कपाल-क्रिया करके उसी समय भ कर देते हैं । देश की तरह तीसरे दिन चिता नहीं बुझाते । उसी दिन बुझाकर जल से शुद्ध कर देते हैं । कपूतविशेष (कपोत यानि कबूतक के तुल्य सिर पर बाँधना होता है । इस 'छोपा' कहते हैं । मुर्दा फूँकनेवाले सब लोगों को स्नान करना पड़ता है । पहले कपड़े भी धोते थे । अब शहर में कपड़े कोई नहीं धोता । हाँ, देहातों में कोई धोते हैं । गोसूत्र के छींटे देकर सबकी शुद्धि होती है । देहात में बारहवें दिन मुर्दा फूँकनेवालों का 'कठोतार' के नाम से भोजन कराया जाता या सीधा दिया जाता है । नगर में उसी समय मिठाई, चाय या फल खिला देते हैं । कर्मकर्ता को आगे करके घर को लौटते हैं । मार्ग में एक काँटेदार शाखा को पत्थर से दबाकर सब लोग उस पर पैर रखते हैं । श्मशान से लौटकर अग्नि छूते हैं, खटाई खाते हैं । कर्मकर्ता को एक बार हविष्यान्न भोजन करके ब्रह्मणचर्य-पूर्वक रहना पड़ता है । पहले, तीसरे, पाँचवे, सातवें या नवें दिन से दस दिन तक प्रेत को अंजलि दी जाती है, तथा श्राद्ध होता है । मकान के एक कमरे में लीप-पोतकर गोबर की बाढ़ लगाकर दीपक जला देते हैं । कर्मकर्ता को उसमें रहना होता है । वह किसी को छू नहीं सकता । जलाशाय के समीप नित्य स्नान करके तिलाञ्जलि के बाद पिंडदान करके छिद्रयुक्त मिट्टी की हाँड़ी को पेड़ में बाँध देते हैं, उसमें जल व दूध मिलाकर एक दंतधावन (दतौन) रख दिया जाता है और एक मंत्र पढ़ा जाता है, जिसका आशय इस प्रकार है - "शंख-चक्र गदा-धारी नारायण प्रेतके मेक्ष देवें । आकाश में वायुभूत निराश्रय जो प्रेत है, यह जल मिश्रित दूध उसे प्राप्त होवे । चिता की अग्नि से भ किया हुआ, बांधवों से परिव्यक्त जो प्रेत है, उसे सुख-शान्ति मिले, प्रेतत्व से मुक्त होकर वह उत्तम लोक प्राप्त करे ।" सात पुश्तके भीतर के बांधव-वर्गों को क्षौर और मुंडन करके अञ्जलि देनी होती है । जिनके माता-पिता होते हैं, वे बांधव मुंडन नहीं करते, हजामत बनवाते हैं । दसवें दिन कुटुम्बी बांधव सबको घर की लीपा-पोती व शुद्धि करके सब वस्र धोने तथा बिस्तर सुखाने पड़ते हैं । तब घाट में स्नान व अञ्जलिदान करने जाना पड़ता है । १० वें दिन प्रेत कर्म करने वाला हाँड़ी को फोड़ दंड व चूल्हे को भी तोड़ देता है, तथा दीपक को जलाशय में रख देता है । इस प्रकार दस दिन का क्रिया-कर्म पूर्ण होता है । कुछ लोग दस दिन तक नित्य दिन में गरुड़पुराण सुनते हैं । ग्यारहवें दिन का कर्म एकादशाह तथा बारहवें दिन का द्वादशाह कर्म कहलाता है । ग्यारहवें दिन दूसरे घाट में जाकर स्नान करके मृतशय्या पुन: नूतन शय्यादान की विधि पूर्ण करके वृषोत्सर्ग होता है, यानि एक बैल के चूतड़ को दाग देते हैं । बैल न हुआ, तो आटे गा बैल बनाते हैं । ३६५ दिन जलाये जाते हैं । ३६५ घड़े पानी से भरकर रखे जाते हैं । पश्चात् मासिक श्राद्ध तथा आद्य श्राद्ध का विधान है । द्वादशाह के दिन स्नान करके सपिंडी श्राद्ध किया जाता है । इससे प्रेत-मंडल से प्रेत का हटकर पितृमंडल में पितृगणों के साथ मिलकर प्रेत का बसु-स्वरुप होना माना जाता है । इसके न होने से प्रेत का निकृष्ट योनि से जीव नहीं छूट सकता, ऐसा विश्वास बहुसंख्यक हिन्दुओं का है । इसके बाद पीपल-वृक्ष की पूजा, वहाँ जल चढ़ाना, फिर हवन, गोदान या तिल पात्र-दान करना होता है । इसके अनन्तर शुक शान्ति तेरहवीं का कर्म ब्रह्मभोजनादि इसी दिन कुमाऊँ में करते हैं । देश में यह तेरहवीं को होता है । श्राद्ध - प्रतिमास मृत्यु-तिथि पर मृतक का मासिक श्राद्ध किया जाता है । शुभ कर्म करने के पूर्व मासिक श्राद्ध एकदम कर दिए जाते हैं, जिन्हें "मासिक चुकाना" कहते हैं । साल भर तक ब्रह्मचर्य पूर्वक-स्वयंपाकी रहकर वार्षिक नियम मृतक के पुत्र को करने होते हैं । बहुत सी चीजों को न खाने व न बरतने का आदेश है । साल भर में जो पहला श्राद्ध होता है, उसे 'वर्षा' कहते हैं । प्रतिवर्ष मृत्यु-तिथि को एकोदिष्ट श्राद्ध किया जाता है । आश्विन कृष्ण पक्ष में प्रतिवर्ष पार्वण श्राद्ध किया जाता है । काशी, प्रयाग, हरिद्वार आदि तीर्थों में तीर्थ-श्राद्ध किया जाता है । तथा गयाधाम में गया-श्राद्ध करने की विधि है । गया में मृतक-श्राद्ध करने के बाद श्राद्ध न भी करे, तो कोई हर्ज नहीं माना जाता । प्रत्येक संस्कार तथा शुभ कर्मों में आभ्युदयिक "नान्दी श्राद्ध" करना होता है । देव-पूजन के साथ पितृ-पूजन भी होना चाहिए । कर्मेष्ठी लोग नित्य तपंण, कोई-कोई नित्य श्राद्ध भी करते हैं । हर अमावस्या को भी तपंण करने की रीति है । घर का बड़ा ही प्राय: इन कामों को करता है । शिल्पकार हरिजन जो सनातनधर्मी हैं, वे अमंत्रक क्रिया-कर्म तथा मुंडन करते हैं, और श्राद्ध ज्यादातर आश्विन कृष्ण अमावस्या को करते है । जमाई या भांजे ही उनके पुरोहित होते हैं । |
संस्कार तथा उत्सव
जातकर्म, नामकरण, व्रतवंध, विवाहादि संस्कार कहलाते हैं । और षष्ठी महोत्सव, जन्मोत्सव, अक्षरारंभ आदि कर्म उत्सव होते हैं । इन कर्मों के करने की विधि दशकर्म-पद्धति में है । कूर्माचल में कट्टरता ज्यादा है । इससे ये बातें बहुतायत से मानी जाती हैं । १६ संस्कारों के नाम ये हैं -
१. गर्भाधान संस्कार
२. पुंसवन / ३. सीमन्तोनयन
४. जातकर्म
५. षष्ठी महोत्सव
६. नामकर्म या नामकरण
७. अन्नप्राशन
८. जन्मोत्सव
९. कणवेध
१०. चूड़ाकरण
११. अक्षराम्भ
१२. उपनयन संस्कार
१३. विवाह-संस्कार
१४. अग्न्याधान
१५. दीक्षा
१६. महाव्रत
१७. सन्यास
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नंदादेवी मेला-अल्मोड़ा
समूचे पर्वतीय क्षेत्र में हिमालय की पुत्री नंदा का बड़ा सम्मान है । उत्तराखंड में भी नंदादेवी के अनेकानेक मंदिर हैं । यहाँ की अनेक नदियाँ, पर्वत श्रंखलायें, पहाड़ और नगर नंदा के नाम पर है । नंदादेवी, नंदाकोट, नंदाभनार, नंदाघूँघट, नंदाघुँटी, नंदाकिनी और नंदप्रयाग जैसे अनेक पर्वत चोटियाँ, नदियाँ तथा स्थल नंदा को प्राप्त धार्मिक महत्व को दर्शाते हैं । नंदा के सम्मान में कुमाऊँ और गढ़वाल में अनेक स्थानों पर मेले लगते हैं । भारत के सर्वोच्य शिखरों में भी नंदादेवी की शिखर श्रंखला अग्रणीय है लेकिन कुमाऊँ और गढ़वाल वासियों के लिए नंदादेवी शिखर केवल पहाड़ न होकर एक जीवन्त रिश्ता है । इस पर्वत की वासी देवी नंदा को क्षेत्र के लोग बहिन-बेटी मानते आये हैं । शायद ही किसी पहाड़ से किसी देश के वासियों का इतना जीवन्त रिश्ता हो जितना नंदादेवी से इस क्षेत्र के लोगों का है । कुमाऊँ मंड़ल के अतिरिक्त भी नंदादेवी समूचे गढ़वाल और हिमालय के अन्य भागों में जन सामान्य की लोकप्रिय देवी हैं । नंदा की उपासना प्राचीन काल से ही किये जाने के प्रमाण धार्मिक ग्रंथों, उपनिषद और पुराणों में मिलते हैं । रुप मंडन में पार्वती को गौरी के छ: रुपों में एक बताया गया है । भगवती की ६ अंगभूता देवियों में नंदा भी एक है । नंदा को नवदुर्गाओं में से भी एक बताया गया है । भविष्य पुराण में जिन दुर्गाओं का उल्लेख है उनमें महालक्ष्मी, नंदा, क्षेमकरी, शिवदूती, महाटूँडा, भ्रामरी, चंद्रमंडला, रेवती और हरसिद्धी हैं । शिवपुराण में वर्णित नंदा तीर्थ वास्तव में कूर्माचल ही है । शक्ति के रुप में नंदा ही सारे हिमालय में पूजित हैं । नंदा के इस शक्ति रुप की पूजा गढ़वाल में करुली, कसोली, नरोना, हिंडोली, तल्ली दसोली, सिमली, तल्ली धूरी, नौटी, चांदपुर, गैड़लोहवा आदि स्थानों में होती है । गढ़वाल में राज जात यात्रा का आयोजन भी नंदा के सम्मान में होता है । कुमाऊँ में अल्मोड़ा, रणचूला, डंगोली, बदियाकोट, सोराग, कर्मी, पौथी, चिल्ठा, सरमूल आदि में नंदा के मंदिर हैं ।अनेक स्थानों पर नंदा के सम्मान में मेलों के रुप में समारोह आयोजित होते हैं । नंदाष्टमी को कोट की माई का मेला और नैतीताल में नंदादेवी मेला अपनी सम्पन्न लोक विरासत के कारण कुछ अलग ही छटा लिये होते हैं परन्तु अल्मोड़ा नगर के मध्य में स्थित ऐतिहासिकता नंदादेवी मंदिर में प्रतिवर्ष भाद्र मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को लगने वाले मेले की रौनक ही कुछ अलग है । अल्मोड़ा में नंदादेवी के मेले का इतिहास यद्यपि अधिक ज्ञात नहीं है तथापि माना जाता है कि राजा बाज बहादुर चंद (सन् १६३८-७८) ही नंदा की प्रतिमा को गढ़वाल से उठाकर अल्मोड़ा लाये थे । इस विग्रह को वर्तमान में कचहरी स्थित मल्ला महल में स्थापित किया गया । बाद में कुमाऊँ के तत्कालीन कमिश्नर ट्रेल ने नंदा की प्रतिमा को वर्तमान से दीप चंदेश्वर मंदिर में स्थापित करवाया था । अल्मोड़ा शहर सोलहवीं शती के छटे दशक के आसपास चंद राजाओं की राजधानी के रुप में विकसित किया गया था । यह मेला चंद वंश की राज परम्पराओं से सम्बन्ध रखता है तथा लोक जगत के विविध पक्षों से जुड़ने में भी हिस्सेदारी करता है । पंचमी तिथि से प्रारम्भ मेले के अवसर पर दो भव्य देवी प्रतिमायें बनायी जाती हैं । पंचमी की रात्रि से ही जागर भी प्रारंभ होती है । यह प्रतिमायें कदली स्तम्भ से निर्मित की जाती हैं । नंदा की प्रतिमा का स्वरुप उत्तराखंड की सबसे ऊँची चोटी नंदादेवी के सद्वश बनाया जाता है । स्कंद पुराण के मानस खंड में बताया गया है कि नंदा पर्वत के शीर्ष पर नंदादेवी का वास है । कुछ लोग यह भी मानते हैं कि नंदादेवी प्रतिमाओं का निर्माण कहीं न कहीं तंत्र जैसी जटिल प्रक्रियाओं से सम्बन्ध रखता है । भगवती नंदा की पूजा तारा शक्ति के रुप में षोडशोपचार, पूजन, यज्ञ और बलिदान से की जाती है । सम्भवत: यह मातृ-शक्ति के प्रति आभार प्रदर्शन है जिसकी कृपा से राजा बाज बहादुर चंद को युद्ध में विजयी होने का गौरव प्राप्त हुआ । षष्ठी के दिन गोधूली बेला में केले के पोड़ों का चयन विशिष्ट प्रक्रिया और विधि-विधान के साथ किया जाता है । षष्ठी के दिन पुजारी गोधूली के समय चन्दन, अक्षत, पूजन का सामान तथा लाल एवं श्वेत वस्र लेकर केले के झुरमुटों के पास जाता है । धूप-दीप जलाकर पूजन के बाद अक्षत मुट्ठी में लेकर कदली स्तम्भ की और फेंके जाते हैं । जो स्तम्भ पहले हिलता है उससे नन्दा बनायी जाती है । जो दूसरा हिलता है उससे सुनन्दा तथा तीसरे से देवी शक्तियों के हाथ पैर बनाये जाते हैं । कुछ विद्धान मानते हैं कि युगल नन्दा प्रतिमायें नील सरस्वती एवं अनिरुद्ध सरस्वती की हैं । पूजन के अवसर पर नन्दा का आह्मवान 'महिषासुर मर्दिनी' के रुप में किया जाता है । सप्तमी के दिन झुंड से स्तम्भों को काटकर लाया जाता है । इसी दिन कदली स्तम्भों की पहले चंदवंशीय कुँवर या उनके प्रतिनिधि पूजन करते है । उसके बाद मंदिर के अन्दर प्रतिमाओं का निर्माण होता है । प्रतिमा निर्माण मध्य रात्रि से पूर्व तक पूरा हो जाता है । मध्य रात्रि में इन प्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा व तत्सम्बन्धी पूजा सम्पन्न होती है । मुख्य मेला अष्टमी को प्रारंभ होता है । इस दिन ब्रह्ममुहूर्त से ही मांगलिक परिधानों में सजी संवरी महिलायें भगवती पूजन के लिए मंदिर में आना प्रारंभ कर देती हैं । दिन भर भगवती पूजन और बलिदान चलते रहते हैं । अष्टमी की रात्रि को परम्परागत चली आ रही मुख्य पूजा चंदवंशीय प्रतिनिधियों द्वारा सम्पन्न कर बलिदान किये जाते हैं । मेले के अन्तिम दिन परम्परागत पूजन के बाद भैंसे की भी बलि दी जाती है । अन्त में डोला उठता है जिसमें दोनों देवी विग्रह रखे जाते हैं । नगर भ्रमण के समय पुराने महल ड्योढ़ी पोखर से भी महिलायें डोले का पूजन करती हैं । अन्त में नगर के समीप स्थित एक कुँड में देवी प्रतिमाओं का विसर्जन किया जाता है । मेले के अवसर पर कुमाऊँ की लोक गाथाओं को लय देकर गाने वाले गायक 'जगरिये' मंदिर में आकर नंदा की गाथा का गायन करते हैं । मेला तीन दिन या अधिक भी चलता है । इस दौरान लोक गायकों और लोक नर्तको की अनगिनत टोलियाँ नंदा देवी मंदिर प्राँगन और बाजार में आसन जमा लेती हैं । झोड़े, छपेली, छोलिया जैसे नृत्य हुड़के की थाप पर सम्मोहन की सीमा तक ले जाते हैं । कहा जाता है कि कुमाऊँ की संस्कृति को समझने के लिए नंदादेवी मेला देखना जरुरी है । मेले का एक अन्य आकर्षण परम्परागत गायकी में प्रश्नोत्तर करने वाले गायक हैं, जिन्हें बैरिये कहते हैं । वे काफी सँख्या में इस मेले में अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं । अब मेले में सरकारी स्टॉल भी लगने लगे हैं ।
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फलों के नाम
घरेलू फल
जंगली फल
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खेती-बाड़ी
खेती-बाड़ी का काम यहाँ पर प्राय: प्राचीन ढ़ंग से होता है। पहाड़ों की ढालों में काट-काटकर खेत बनाये गये हैं, जिनमें अनाज बोया जाता है। जहाँ कहीं हो सकता है, पर्वतीय नदियों से नाला काटकर नहर ले जाता हैं, जिन्हें 'गुल' कहते हैं। उनसे सिंचाई होती है। कहीं-कहीं पहाड़ की घाटियों में नदी के किनारे बड़ी उपजाऊ जमीने हैं। ये 'सेरे' कहे जाते हैं। जिस जमीन में पानी से सिंचाई नहीं हो सकती, वह 'उपजाऊ' कहलाती है। गाँव के हिस्से 'तोक, सार, टाना' आदि नामों से पुकारे जाते हैं। यों तो खेती हल चलाकर होती है। किन्तु कहीं-कहीं ऐसी पर्वतीय जगहें हैं, जहाँ बैल नहीं जा सकते। वहाँ कुदाली (कुटल) से खोदकर खेती करते है । फसलें प्राय: दो होती हैं। तराई भावर में कहीं-कहीं तीन फसलें होती हैं। फसलों में जो-जो चीजें पैदा होती हैं, उनका ब्यौरा नीचे दिया गया है - खरीफ अनाज - धान, मडुवा, मानिरा, कौणी, चीणा, चौलाई या चुआ, उगल (फाफरा), मक्का। तराई भावर में इनके अलावा ज्वार, बाजरा, गानरा आदि भी होते हैं। दालें - उर्द, भट, गहत, रैंस, अरहर, मूँग । अरहर पर्वतों में नहीं होता। तिलहन - सरसों, तिल, भंगीरा। रबी अनाज - गेहूँ, जौं, भावर में गानरा दालें - मसूर, मटर (चना भावर तराई में) तिलहन - अलसी, सरसों। रुई यहाँ पर यत्र-तत्र कुछ होती है। फसल खरीफ के साथ भाँग भी बोई जाती है, जिसके पत्तों से चरस बनती है। इसके बीज पीसकर जाड़ों में तरकारी में डालकर खाये जाते हैं। ये बड़े गरम होते हैं। भागों के रेसों से रस्सियाँ तथा बोरी का कपड़ा बनता है। गन्ना कहीं-कहीं पहाड़ों में भी होता है। अदरख, हल्दी, मिर्च, बहुतायत से बाहर भेजे जाते हैं। आलु व घुइयाँ (पिनालु) बहुत होते हैं। बंडे (गडेरी) ८-१० सेर तक होते हैं, और कलकत्ते तक भेजे जाते हैं। तम्बाकु निजी खर्च के लिए कहीं-कहीं बोया जाता है। लोगों की मुख्य गुज़र खेती से होती है। पर खेती लोगों के पास थोड़ी-थोड़ी बोने से सब बातों की गुज़र उससे नहीं होती, इसलिए लोग नौकरी करते हैं। तमाम भारत में, खासकर उत्तरी भारत में बहुत से लोग उच्च सरकारी व अन्य नौकरियों में फैले हैं। कुमाऊँ में कुमाऊँ के लायक अनाज पैदा नहीं होता। तराई-भावर से अनाज पर्वतों को जाता है, किन्तु यह ज्यादातर नगरों को जाता है, जैसे नैनीताल, भवाली, रानीखेत, अल्मोड़ा मुक्तेश्वर आदि। देहात अन्न के बारे में प्राय: स्वावलंबी हैं। |
कुमाऊँ की आलेखन परम्परा
कुमाऊँ का प्राचीन इतिहास अनेक कबीलों तथा विभिन्न संस्कृतियों को अपने आँचल में समेटे हुए है। कुमाऊँ में अल्पना तथा भिप्ति चित्रों का प्रत्यक्ष रुप व चलन चन्द शासन काल से होता है। कुमाऊँ में चन्द वंश की स्थापना का सूत्रपात चम्पावत में सोमचन्द से आरम्भ होता है। सोमचन्द तथा उसके दश वंशजों का शासन ९७५ ई. से ११७८ ई. तक माना जाता है। इस काल की सबसे उल्लेखनीय घटना इन्द्र चन्द का चीनी राजकन्या से विवाह होना है। इस विवाह के कारण स्थानीय जनता ने विद्रोह कर दिया और उसे तथा उसके शासन काल में बाहर से आये हुए ब्राह्मण, क्षत्रिय (राजपूत) लोगों को कुमाऊँ से बाहर भगा दिया। यह लोग २०० से २५० वर्ष तक कुमाऊँ में नहीं आ सके। परन्तु १३६५ ई. में उन्होंने पुन: काली कुमाऊँ में अपना राज्य स्थापित किया। सबसे ध्यान देने वाली बात यह है कि यहाँ के प्रशासक अथवा शासक राजपूत वर्ग - महरा, फड़त्याल, जिन्ना, जलाल, मनराल, रोतौला, रजबार आदि में यह कला समृद्ध नहीं है और न उनके सांस्कृतिक जीवन का अटूट अंग। ऐपण व भिप्ति चित्रकला परम्परा कुमाऊँ में मात्र साह (साह) व ब्राह्मणों में ही अपने सम्पूर्ण विकसित स्वरुप तथा जीवन के समस्त सांस्कृतिक कार्यकलापों की गहराई की हद तक जुड़ी हुई है। ब्राह्मणों में पंत व जोशी अपना मूल स्थान महाराष्ट्र व गुजरात मानते हैं। कहा जाता है कि सोम चन्द ८ वीं शताब्दी में गुजरात से ही आकर यहाँ बसा था। दूसरा मान्यता है कि सोम चन्द 'झूसी' इलाहाबाद का राजकुमार था और बैस राजवंश से सम्बन्धित था। तीसरी जनश्रुति कहती है कि सोम चन्द कन्नौज के शासक का भाई था, जो ज्योतिषियों की भविष्यवाणी के अन्तर्गत नये राज्य की कामना हेतु कुमाऊँ में आया था। उसका यहाँ आगमन उसकी बद्रीनाथ यात्रा के निमित्त हुआ था। तत्कालीन शासक ब्रह्मदेव ने अपनी कन्या का विवाह इससे किया और दहेज में चम्पावत के सुई क्षेत्र, दुर्ग तथा तराई की कुछ भूमि भी इसे प्रदान की। इस कथन का साक्ष्य कुमाऊँ क्षेत्र में घसने वाले 'साह' लोगों की इस मान्यता से होता है कि साह अपना पूर्व स्थान 'झूसी' इलाहाबाद को मानते हैं और आज भी साह लोग विशेष रुप से बढ़े-बूढ़े जब कभी प्रयाग व कुम्भ स्नान के लिए जाते हैं, तब झूसी में ही रहना सार्थक समझते हैं। दूसरी बात यह है कि कुमैया साह अपना पूर्ववर्ती स्थान चम्पावत को मानते हैं। इन सब बातों से यही विश्वास होता है कि 'साह' लोग चन्दों के साथ ही बाहर से आये। ऐपणों व भिप्ति चित्रों, जिनको 'लिख थाप' या थापा कहते हैं, में अनेक प्रकार के प्रतीक व लाक्षणिक अन्तर दृष्टिगोचर होते हैं। साहों व ब्राह्मणों के ऐपणों में सबसे बड़ा अन्तर यह है कि ब्राह्मणों में चावल की पिष्ठि निर्मित घोल द्वारा धरातलीय अल्पना अनेक आलेखन प्रतीकों, कलात्मक डिजाइनों, बेलबूटों में प्रकट होती है। साहों में धरातलीय आलेखन ब्राह्मणों के समान ही होते हैं परन्तु इनमें भिप्ति चित्रों की रचना की ठोस परम्परा है। थापा श्रेणी में चित्रांकन दीवलों या कागज में होता है। यह शैली ब्राह्मणों में नहीं के बराबर है। जिन आलेखनों या चित्रों की रचना कागज में की जाती है। उन्हें प कहते हैं। इसी प्रकार नवरात्रि पूजन के दिनों में दशहरे का पट्टा केवल साह लोग बनाते हैं। विवाहोत्सव में विवाहित स्रियों के लिए विशेष प्रकार का कुसुमी पिछौड़ा (विशेष ओढ़नी) सारे कुमाऊँ में प्रचलित है परन्तु इनके निर्माण व रंगों की आभी साह व ब्राह्मणों में विशेष है। साहों के कुसुमी पिछौड़े विशिष्ट रंगों व प्रकाश के कारण तथा केन्देर स्थल के निर्माण के कारण सर्वश्रेष्ठ समझे जाते हैं और यही ब्राह्मणों के कुसुमी पिछौड़े के आलेखन व रंग आभा तथा साहों के कुसुमी पिछौड़े के रंगों के प्रयोग तथा केन्द्र के आलेखन का प्रबल लाक्षणिक अन्तर स्पष्ट करते हैं। ऐपणों में एक स्पष्ट अन्तर यह है कि ब्राह्मण गेरु मिट्टी से धरातल का आलेपन कर चावल के आटे के घोल से सीधे ऐपणों का आलेखन करते हैं परन्तु साहों के यहाँ चावल की पिष्टि के घोल में हल्दी डालकर उसे हल्का पीला अवश्य किया जाता हैं तभी ऐपणों का आलेखन होता है। ज्ञात हुआ कि उच्चकुलीन ब्राह्मणों में जो दीवानों की कोटि में आते हैं, वे भी 'बिस्वार' (चावल की पिष्ठि का घोल) में कच्ची अथवा सूखी हल्दी पीस कर डाल दी जाती है और पीली आभा युक्त ऐपण दिये जाते हैं। साहों के यहाँ ऐपणों के अन्तर्गत एक और विशेष शैली है, जिसे 'वर' कहा जाता है। क्योंकि इसमें बूँदों तथा उनकी सँख्या द्वारा समान रुप से वरों व डिज़ाईनों का निर्माण किया जाता है। हर डिजाइन व अभिप्राय के लिए बूंदों की अलग-अलग संख्या निर्धारित है। प्रत्येक आलेखन विशेष ज्योमितीय अलंकरण, बूंदों की संख्या, विशेष रंग द्वारी निर्धारित व नामांकित है। पट्टे पर वर बूंद मुख्यत: उपासना या पारिवारिक पूजा गृह में ही सुशोभित रहते हैं। पर बूंदों का चित्रांकन पूजा गृह के अतिरिक्त भी दृष्टिगोचर होता है। यदि उनके निर्माण का कारण जाना जाय तो शत प्रतिशत यह तथ्य उजागर होता है कि अमुक समय में विवाह या यज्ञोपवीत संस्कार उस स्थान पर हुआ था, इसलिए वहाँ वरों का निर्माण हुआ था। थापा पट्टा शैली, ज्यूति मातृका इत्यादि शैलियाँ चम्पावत या संलग्न क्षेत्र में मात्र कुछ ब्राह्मण अथवा साह परिवारों के अतिरिक्त कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होतीं। अन्य इनका ज्ञान नहीं रखते। इन शैलियों की विगत १०० वर्षों से सुरक्षित अनेक रचनाएँ आज भी अल्मोड़ा, रानीखेत में हैं। इनका आलेखन आज भी उसी उत्साह व मान्यताओं के आधार पर होता है जो विगत शताब्दियों से था। प्रयुक्त संकेतों, कोणों, बिन्दुओं, चित्रकृतियों व विभिन्न अनुष्ठानों के लिए विभिन्न संख्या को बिन्दुओं द्वारा निर्मित यंत्र चौकियों के देखने से स्पष्ट होता है कि कुमाऊँ की इस कला में वज्र यानी, शैव व शाक्त तांत्रिक अवुष्ठानों व मान्यताओं का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा है। रेखाचित्रों वाले पट्टों व ज्यूतियों में 'जैनशैली' जो अपनी प्रारम्भिक अवस्था में गुजरात में 'अपभ्रंश' शैली के रुप में विकसित व प्रतिष्ठित हुई थी, स्पष्ट रुप से दिखाई देती है। इसके अतिरिक्त राजस्थानी शैली, जो कि अपभ्रंश शैली का ही विकसित रुप थी व विशेष रुप से 'मालवा शैली', जो राजस्थानी शैली की ही एक धारा है, से भी विकसित होकर उभरी। इसका उदाहरण ज्यूति मात्रिका पट्टा, शेष शय्या (शेषनाग की शय्या पर विराजमान विष्णु व लक्ष्मी), महालक्ष्मी पट्टा, डोर दुबज्योड़ पट्टा, कृष्ण जन्माष्टमी पट्टा व नवदुर्गा पट्टा (नवरात्रि पूजन के समय) में दृष्टिगोचर होता है। कुमाऊँ की ज्यूति मातृका पट्टों, थापों तथा वर बूदों में श्वेताम्बर जैन अपभ्रंश शैली का भी स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। श्वेताम्बर जैन पोथियों की श्रृंखला में बड़ौदा के निकट एक जैन पुस्तकागार में ११६१ ई. की एक ही पुस्तक में औधनियुक्ति आदि सात ग्रंथ मिले, जिनमें १६ विद्या देवियों, सरस्वती, लक्ष्मी, अम्बिका, चक्र देवी तथआ यक्षों के २१ चित्र बने हैं। इन ग्रंथ चित्रों में चौकोर स्थान बनाकर एक चौखट सी बनाई गई हैं और इनके मध्य में आकृतियाँ बिठाई गई हैं। ठीक इसी प्रकार का चित्र नियोजन कुमाऊँ के समस्त ज्यूति पट्टो, थापों व बखूदों में किया जाता है। कुमाऊँ में ज्यूति पट्टों में महालक्ष्मी, महासरस्वती व महाकाली ३ देवियाँ बनाई जाती है साथ में १६ षोडश मातृकाएं तथा गणेश, चन्द्र व सूर्य निर्मित किये जाते हैं। अपभ्रंश शैली में रंग व उनकी संख्या भी निश्चित है। जैसे लाल, हरा, पीला, काला, बैगनी, नीला व सफेद। इन्हीं सात रंगों का प्रयोग कुमाऊँ की भिप्ति चित्राकृतियों अथवा थापों व पट्टों में किया जाता है। कुमाऊँ में प्रचलित मुख्य ऐपणों व चौकियों की सविस्तार चर्चा इस प्रकार की जा सकती है - सरस्वती पीठ - तीन प्रकार से बनाई जाती है। धरातल को पहले गेरु मिट्टी के घोल से लीप लेते हैं। फिर चावल पिष्ठिका (विस्तार) से रेखांकन किया जाता है। साह इसमें पीली आभा लाते हैं व ब्राह्मण विस्तार का रंग सफेद ही रहने देते हैं।
जनेऊ पीठ - जनेऊ पीठ या यंत्र का निर्माण षट्कोण के अन्दर प्रत्येक भुजा पर आठ (८) बिन्दुओं का अंकन किया जाता है। इसी प्रकार मध्य भाग में बराबर दूरी में तथा समानान्तर ८ बिन्दुओं का अंकन किया जाता है। मध्य भागीय बिन्दुओं को रेखा द्वारा इस प्रकार जोड़कर व्यवस्थित किया जाता है कि रचना ७ श्री यंत्रों की छटा लिए हुए प्रकट होती है। इन्हें सप्तॠषि मण्डल कहा जाता है। यह हैं कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र तथा वशिष्ठ। इस सम्पूर्ण यंत्र के शीष में मुकुट तथा दाईं व बाईं तरफ २-२ हाथ अथवा कांगें तथा चरण पीठ बनाई जाती है। इस यंत्र को मां गायत्री देवी के रुप में चतुर्भुजी माना जाता है। इस यंत्र का निर्माण जनेऊ या उपनयन संस्कार के समय अत्यावश्यक होता है। शिव पीठ यंत्र - इस यंत्र स्वरुप अल्पना का आलेखन १२न्१२ बिन्दुओं द्वारा, दूसरे प्रकार में १६न्१६ बिन्दुओं द्वारा किया जाता है। बाह्य धरातल को कुण्डी (ताम्र पात्र) के स्वरुप में अंकित किया जाता है। ईषाण व ऊषाण का अंकन होता है। यह श्रावण मास में शिव पूजन हेतु बनाई जाती है। सूर्य चौकी - इसका निर्माण नामकरण संस्कार के बाद नव शिशु को बाहर प्रकाश में लाये जाने पर किया जाता है। इसके अतिरिक्त इसका निर्माण सूर्य व्रत के उपलक्ष्य में रविवार को पौष माह में भी किया जाता है। इसमें चन्द्र, सूर्य, शुक्र (विष्णु-लक्ष्मी), अठ जल (अष्ट कोणीय यंत्र), शंख, घंटा, कुण्डी या चक्र आसन, आरती, गड़ु़वा, धूपदान पुन: आसन निर्मित किया जाता है। स्यो - नामकरण संस्कार के बाद छटी का चाक विसर्जन करने नौला जाते हैं। तब आंगन में स्यो का चित्रांकन अल्पना द्वारा होता है। ब्राह्मणों तथा साहों में अलग-अलग प्रकार का स्यो बनता है। ब्राह्मणों में कमल दलो का सिंहासन सदृश स्यो निर्मित होता है। सबसे नीचे ५ कमल पंखुड़ियाँ निर्मित की जाती है, उनके स्वर ४,३,२,१ के हिसाब से निर्माण होता है। ऊपर शीर्षमुकुट नीचे पद वेदी बनती है। साहों में स्यो कलश या गडुवे के रुप में बनता है। नाता - साहों में नातों का निर्माण व मान्यता विशिष्ट है। नाते दो समय अथवा कालों में बनाये जाते हैं। इनका अलंकरण व रेखांकन केवल चूल्हे या भोजन कक्ष में होताहै। जो नाते चैत्र मास में बनाये जाते हैं उन्हें चैतु नाता कहते हैं। इसके बाद दीपावली में नातों को बनाया जाता है। यह भी ऐपण का प्रकार है जो केवल पीली मिट्टी के धरातल पर बिस्वार से अंकित किया जाता है। बाईं और विशिष्ट शैली में अंगुलियों की पोरों से ३ मानवीय आकृतियां बनाई जाती हैं जिनके हाथ एक दूसरे के हाथों को पकड़े हुए बनाये जाते हैं। यह सामंती युगीन मान्यता की अभिव्यक्ति है कि अमुक परिवार में भोजन कक्ष में ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य ३ सवर्ण जातियों के लोग ही भोजन खाने के अधिकारी हैं। दाईं ओर लक्ष्मी व नारायण का नाता रेखांकित किया जाता है जो पवित्रता व धन धान्य दाता व पालककर्त्ता समझे जाते हैं। मध्य में धान की बालियों के प्रतीक चिन्हों के अंकन द्वारा परिवार के सदस्यों तथा निकट सम्बन्धियों की संख्या दर्शाई जाती है। यह एक प्रकार से सम्मिलित परिवार की सदस्य संख्या का लेखा जोखा अंकित करता है। यह दो प्रकार से बनाये जाते हैं (अ) अल्मोड़ा शैली (ब) बागेश्वर शैली। धुँया - इसका आलेखन दीपावली के दिन अमावस्या के बाद बड़ी एकादशी (१२ दिन के बाद) को किया जाता है। इसे बूढ़ी दीपावली कहते हैं। इसका आलेखन सूप में किया जाता है। इसकी कल्पना सूप से समान पंख युक्त पक्षी की होती है। कुछ लोग गरुढ़ आरुढ़ नारायण की बात इसके लिए कहते हैं। मान्यता है कि पारिवारिक क्लेश, दरिद्रता को दूर करने की कल्पना से इनका निर्माण होता है। धूलि अध्र्य की चौकी - यह कमल के आकार की अल्पना है। इसका कलेवर गड़ु़वा (टोंटीदार कलश) की तरह अंकित किया जाता है। केन्द्र स्थल यज्ञ वेदी के समतुल्य अंकित किया जाता है। आड़ी तिरछी चार रेखाऐं बनाई जाती हैं, जो अरणी-भरणी यज्ञ काष्ठ की द्योतक होती है। इसका फैलाव केन्द्र स्थल से बाहर की ओर बढ़ता जाता है। अंकन के लिए कमल दल के प्रधानता दी जाती है। इसका स्वरुप गोलाई लिये हुए कलश की तरह बनाया जाता है। दोनों ओर २-२ हाथ की तरह फांगे अलंकृत हाथी की सूँड की तरह बनाये जाते हैं। इनके अन्तिम सिरे पर गगरी बनाई जाती है। यह विष्णु स्वरुप पवित्र समझा जाता है। शीर्ष के मुकुट व नीचे पाँवों की ओर पाठ निर्मित की जाती है। इसमें विष्णु प्रतीक शंख, चक्र, गदा, पद्म अंकित किये जाते हैं। विवाह की र सर्वप्रथम इसी से प्रारम्भ होती है। कन्या का पिता वर का स्वागत, चरण प्रक्षालन व अध्र्य दान संकल्प सहित, वर को इसी चौकी पर खड़ा करके कन्या का दान करता है तथा भेंट देता है। अब उन चित्रांकनों का विवरण दिया जा रहा है जिनमें चावल पिष्ठिका घोल व गेरु का प्रयोग नहीं किया जाता वरन् विभिन्न रंगों - लाल, चटख लाल, हरा, पीला, नीला, बौजनी, काला व सफेद - को प्रयोग में लाया जाता है। मुहाली, द्वार मातृ, माई तथा विजन - इनका निर्माण विवाहोत्सव में मुख्य द्वार के सौन्दर्यीकरण के लिये किया जाता है। माई, विजन व द्वार मातृ बुरी दृष्टि व अशुभ को दूर करने की कामना से चित्रित किये जाते हैं। विवाह का ज्यूति पट्टा - इसमें महाकाली, महालक्ष्मी व महासरस्वती केन्द्र में बनाई जाती है। इनके साथ गणेश, सूर्य, चन्द्र व १६ मातृकाएं अंकित की जाती है। इन्हें चौकोर रेखिकीय चौखट में अंकित कर बाहर की ओर मछिया सिंगालिया अथवा खोडस वरों से अलंकृत किया जाता है। शीर्ष पर बड़े हिमालय व छोटे हिमालय का अंकन किया जाता है। इन सबके शीर्ष पर 'हलयाली बोट' - हरा पेड़ जो कल्पतरु माना जाता है, कमल (८ पंखुडियों वाला), शुक - सारिका (लक्ष्मी-नारायण) व दो हरे तोतों का निर्माण किया जाता है। राधा कृष्ण का चित्रांकन मनुष्याकृति में किया जाता है। शुकसारिका, शेष नाग की शय्या में लेटे हुए विष्णु व चरणों के पास लक्ष्मी तथा नाभि से उत्पन्न कमल पर ब्रह्मा की कल्पना को विशिष्ट रेखाओं द्वारा निर्मित किया जाता है। यज्ञोपवीत का ज्यूति पट्टा - इसका निर्माण विवाह ज्यूति की ही तरह होता है। मुख्य अन्तर यह है कि शीर्ष पर विष्णु-लक्ष्मी या कृष्ण-राधा की मानवीय प्रतिमा का रेखांकन नहीं होता। दूसरा अन्तर है शीर्ष पर बाईं ओर सप्त ॠषि मण्डल का जनेऊ पीरु की तरह बनाया जाता है तथा दाहिनी ओर छापरी (भिक्षा पक्ष का निर्माण) किया जाता है। मान्यता है कि 'गिरह जाग' पर बालक चुन्डित मुन्डित हो एक कौपीन मात्र पहनकर ब्रह्मचर्याश्रम में प्रविष्ट करता है तथा विद्या अध्ययन के लिए काशी में अपने गुरु के पास जाता है। ब्रह्मचर्याश्रम में भिक्षा द्वारा ही अपना व गुरु पोषण का दायित्व वहन करता है। अध्ययन के उपरान्त उसका उपनयन व यज्ञोपवीत संस्कार किया जाता है। अत: इस अवसर पर ज्यूति पट्टे की पूजा अर्चना की जाती है। छट्टी की ज्यूति व सामान्य ज्यूति - यह ज्यूति पट्टा भी विवाह ज्यूति पट्टे की तरह ही होता है। परन्तु इसमें शीर्ष पर लक्ष्मी नारायण या राधकृष्ण की मानवीय अवयवों से युक्त प्रतिमा का आलेखन नहीं किया जाता है। बाकी अलंकरण व स्वरुप का विन्यास अन्य ज्यूतियों की तरह ही किया जाता है। ज्यूति मातृका चौकी - इसका निर्माण काष्ठ चौकी को हल्दी से रंग दिया जाता है। इसमें समस्त अलंकरण लाल रंग की रेखाओं द्वारा निर्मित किये जाते हैं। इसमें न तो किसी प्रकार के 'वर' बनाये जाते हैं और न 'छज्जा' बेल को बनाया जाता है। अन्य सभी प्रतीक व अलंकरण विवाह ज्यूति की तरह ही होते हैं। इसमें भी लक्ष्मी नारायण या राधा कृष्ण की युगल मानवीय आकृति नहीं बनाई जाती। जन्माष्टमी का पट्टा या थापा - सर्वप्रथम शिव पार्वती बनाये जाते हैं। उसके उपरान्त दशावतार निर्मित किये जाते है। शिव की जटाओं से गंगा व यमुना का उद्गम निर्मित किया जाता है। इसके उपरान्त कृष्ण की विस्तृत लीलाएं दर्शायी जाती हैं। इनकी अभिव्यक्ति पूर्णत: सुखसागर, भागवत के अतिरिक्त ब्रह्मपुराण व विष्णुपुराण के अनुसार होती है। इसमें गोवर्धन धारण इत्यादि को अंकित किया जाता है। चारों ओर सुन्दर गौ पुच्छ लता निर्मित की जाती है। हरशयनी पट्टा - इस थापे में विष्णु को शेषनाग की शैय्या पर लेटा हुआ तथा चरणों को दबाते हुए लक्ष्मी दर्शाई जाती है। क्षीरसागर का निर्माण किया जाता है। प्रतीक रुप से नीले गहन जल में मछली तथा कछुवा और नाभि से उत्पन्न कमल व उस पर चार मुख वाले ब्रह्म रेखांकित किये जाते है। चारों ओर घंटी या लगुली बेल बनाई जाती है। हर बोधिनी पट्टा - इसे तुलसी विवाह के अवसर पर मात्र लाल रंग से निर्मित किया जाता है। यह एक प्रकार की चौकी होती है। इसे १२ (बारह) बिन्दुओं से निर्मित किया जाता है। उसमें ४ भद व एक कँवल बनता है। इसे भी चारों ओर से सुन्दर लता व पुष्पों के निर्माण से भव्य रुप दिया जाता है। इसे 'बाल भद्र' के नाम से जाना जाता है। दूर्वाष्टमी और डोर दुवज्योड़ा पट्टा - इसमें सात रानिया, एक नौला (जल भरने का कूप), नौले में बच्चा बनाया जाता है। बच्चे के एक हाथ में माँ के गले में पड़े तागे को पकड़ रखा है। यह तागा डोर कहलाता है तथा हाथ में भुज दण्ड की तरह ३ पल्ले का धागा औरतें धारण करती हैं। इन्हें दुबज्योड़ा कहते हैं। यह एक प्रकार से स्रियों द्वारा जनेऊ की तरह पवित्र समझकर धारण किया जाता है। इन पर २-२ चिड़ियाँ बैठाई जाती है। इसका निर्माण लोक कथा पर आधारित है। ॠषिपंचमी व नागपंचमी पट्टा - इसमें वामनावतार (विष्णु) तथआ सप्त ॠषि बनाये जाते हैं। विशेष आकृति युक्त नाग जोड़े में होते हैं। महालक्ष्मी का पट्टा - इसमें ३ छत्र बनाये जाते हैं। ८ पंखुड़ियों वाले कमल में चार भुजाओं वाली महालक्ष्मी को बनाया जाता है। बाईं तरफ के हाथों में चक्र व पद्म बनाया जाता है तथा दाईं तरफ के हाथों में त्रिशूल। नीचे ९ बिन्दु वाली सरस्वती चौकी या 'घृत कंवल' बनाया जाता है। लक्ष्मी के दोनों ओर दो-दो हाथी सूंड उठाकर जल कलश से लक्ष्मी का प्रक्षालन करते हैं। उसके नीचे दोनों ओर अठजल (जल कुण्ड आठ भुजाओं वाले) बनाये जाते हैं। नवदुर्गा पट्टा - यह पट्टा साह वंश में ही प्रचलित है और कुमाऊँ की मान्यताओं, धार्मिक विश्वासों व अंकन शैली का प्रतीक है। इसमें मुख्यत: पीला, लाल, नीला, काला तथा हरा रंग प्रयोग में लाया जाता है। इसका धरातल पीला बनाया जाता है। उसके उपरान्त ही अन्य प्रतीक, आकृतियाँ तथा मंत्रों का आलेखन होता है। चौकोर या आयताकार पट्टे के चारों ओर सुन्दर किनारे का निर्माण किया जाता है। उसके उपरान्त ही मुख्य पट्टे का आलेखन प्रारम्भ होता है। इसका प्रयोग विशेषरुप से आश्विन मास की नवरात्रियों में भगवती पूजन व व्रत के लिए होता है। कुमाऊँ में भिप्ति - चित्रण व अलंकरण की कोटि के अन्तर्गत वर-बूंद आते हैं, जो निम्न प्रकार के हैं - सूरजी वर, गुलाब चमेली वर, मुष्टि वर, अलमोड़िया खोडस, गलीची वर, विशिष्ट गलीचीवर, कटारी वर, २० बिन्दु का संगलिया वर, २२ बिन्दु का संगलिया वर, १६ बिन्दु का भद्र वर, १९ बिन्दु का भद्र, स्वास्तिक फूल या ६ फूल वर, २४ बिन्दु का, ६ फूल वर, २२ बिन्दु का, घौर तिलक ३७ बिन्दु का वर, हर हर मण्डल वर, ३७ बिन्दु का नींबू वर, ९ (नौ) बिन्दु का मछिया वर, खोड्स वर या खोड्स वर, २२ बिन्दु का, खोड्स वर २४ बिन्दु का, खोड्स वर ६ बिन्दु का, खोड्स वर १२ बिन्दु का। कुमाऊँनी ऐपणों को अगर सूक्ष्मता से देखा जाए तो बोध होता है कि इन पर बंगाल का स्पष्ट प्रभाव है। भले ही कुछ प्रतीक व नाम शुद्ध कुमाऊँनी भाषा व क्षेत्र के ही हैं परन्तु पूर गठन बंगाल की अल्पना के प्रभाव से पूर्ण दिखाई देता है। १६वीं सदी के तारानाथ, जो तिब्बती इतिहासकार थे, द्वारा लिखित इतिहासकार से ज्ञात होता है कि ७वीं सदी में पश्चिमी भारत में 'भाखड़' से एक चित्र शैली प्रचलित हुई और ९वीं सदी से पूर्वी भारत में भी एक शैली का प्रचलन हो चला था। पहले नेपाल के चित्रकार पश्चिम भारतीय शैली में काम करते थे परन्तु बाद को उन्होंने पूर्वी शैली को अपना लिया। यह पूर्वी शैली ही आगे चलकर 'सेन' और 'पाल' शैली कहलाई। इस शैली में जहाँ चित्रों का निर्माण मात्र लाल, पीला, नीला, काला, सफेज, बैगनी रंगो में होता था, वहीं चित्रांकन उसी प्रकार होता था जिस प्रकार कुमाऊँ में लिख थापों व वर बूंदों में। बंगाल में सेन व पाल शासन में अनेक वज्रयानी (तांत्रिक) स्थविर प्रगट हुए तथा उस समय तांत्रिक बैद्ध (वज्रयानी) केवल नेपाल, बिहार तथा बंगाल में ही शेष रह गए थे और तिब्बत बज्रयानी लामावाद का दुर्ग बन चुका था। इसलिए कुमाऊँ के वर बूंद, जो १२ या १३ प्रकार के हैं, के विषय में कुमाऊँ की वयोवृद्ध जानकारों का कहना है कि यह कला भोट देश अर्थात् तिब्बत से आयी है। मान्यतानुसार शिव का स्थान कैलाश पर्वत तथा विष्णु का मानसरोवर दोनों भोट प्रदेश (तिब्बत) में हैं। इसी प्रकार शिव-पार्वती व विष्णु की पूजा अर्चना के लिए हर हर मण्डल व गौर तिलक का निर्माण किया जाता है। कुमाऊँनी ऐपणों में चावल पिष्टि के घोल का प्रयोग करते हैं, उसी प्रकार बंगाल के ऐपणों का निर्माण व आलेखन होता है। बंगाल में कृषि विषयक लौकिक आचार तथा अनुष्ठान की अल्पना है। कुमाऊँ में भी इसी प्रयोजन के लिए लोक संस्कृति में हरेला, डिकरा, बिरुड़िया व डोर दुबज्योड़ पूजा का विधान व थापे तथा ऐपण हैं। कुमाऊँ में लक्ष्मी व्रत व पूजा के लिए अल्पना द्वारा षट् कोणीय श्रीयंत्र का मध्य में निर्माण कर अथवा सरस्वती पीठ का निर्माण कर अष्ट दल कमल से घेर दिया जाता है। तत्पश्चात चारों सम्पूर्ण क्षेत्र को विभिन्न पुष्पों व लताओं के प्रतीकों से भर दिया जाता है। कुमाऊँ में विवाहोत्सव अवसर पर रंगों द्वारा भी चित्रों का निर्माण किया जाता है जैसे - ज्यूति पट्टा (विवाह का), वर बूंद, मातृका चौकी (काष्ठ पर), पंच पात्रों (पांच प्रकार के बर्तन) व जाल के साथ भेंट की जाने वाली विवाह चौकी। यह वर व कन्या पक्ष दोनों बनाते है। |
उत्तरांचल कुमाऊँ के पर्वोत्सव व त्यौहार
जिन तिथियों में स्नान-दानादि कर्म होते हैं, वे पर्व कहलाती हैं। जिनमें आमोद-प्रमोद, हर्ष-आनंद मानाया जाता है, वे उत्सव कहे जाते हैं। यथा होली-दिवाली के त्यौहार उत्सव हैं। संक्रान्ति, पूर्णिमा, गंगा-दशहरा आदि पर्व हैं। जन्माष्टमी, शिवरात्रि आदि व्रत हैं। पर्वोत्सव अथवा व्रतोत्सव सभी त्यौहार कहलाते हैं। कुमाऊँ में निम्नलिखित त्यौहार माने जाते हैं। १. संवप्सर प्रतिपदा
२. चैत्राष्मी
३. रामनौमी
४. दशाई या दशहरा
५. विषुवती उर्फ विखौती
६. बैसाखी पूर्णिमा
७. नृसिंहचतुर्दशी
८. बट-सावित्री
९. दशहरा
१०. हरेला, हरियाला या कर्क-संक्रान्ति
११. हैरिशयनी यह प्रसिद्ध व्रत है। चातुर्मात्स्य नियम इस दिन से स्रियाँ धारण करती हैं। हरि-बोधिनी का व्रत पूर्ण होते है। १२. श्रावणी १५
१३. सिंह या घृत-संक्रान्ति
१४. संकष्ट चतुर्थी
१५. जन्माष्टमी
१६. हरियाली व्रत
१७. गणेष चतुर्थी
१८. ॠषिपंचमी
१९. अमुक्ताभरण सपतमी
२०. दूर्वाष्टमी
२१. नन्दाषटमी
२२. अनन्त चौदस-व्रत
२३. खतड़वा
२४. श्राद्ध
२५. दुर्गोत्सव
२६. विजयादशमी
२७. कोजागर
२८. दीपोत्सव
२९. नरक चतुर्दशी
३०. दीपमालिका या दिवाली
३१. यम द्वितीया
३२. गोवर्धन प्रतिपदा
३३. हरिबोधिनी ११
३४. वैकुण्ठ १४
३५. कार्तिकी पौर्णमासी
३६. भैरवाष्टमी
३७. मकर-संक्रान्ति
३८. संकष्टहर व्रत
३९. वसन्त पंचमी
४०. भीष्माष्टमी
४१. शिवरात्रि
४२. होली
४३. टीका २
वारों का व्रत -
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भौगोलिक विवरण उत्तरांचल आन्दोलन
भौगोलिक विवरण - उत्तरांचल हिमालय पर्वत क्षेत्र के एक बड़े भाग में स्थित है। इस क्षेत्र की सीमायें चीन, तिब्बत एवं नेपाल की अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं को छूती हैं। उत्तर प्रदेश की सभी छोटी-बड़ी नदियों का उद्गम इसी क्षेत्र से हुआ है। उत्तरांचल क्षेत्र में छोटी-छोटी पहाड़ियों से लेकर उँची पर्वत श्रंखलाये तक विद्यमान हैं। इनमें अधिकांश समय तक बर्फ से ढकी रहने वाली नन्दा देवी, त्रिशुल, केदारनाथ, नीलकंठ तथा चौखंभा पर्वत चोटियाँ हैं। परिस्थितकीय विभिन्नताओं के कारण इस क्षेत्र में भिन्न-भिन्न वनस्पतियाँ व जीव-जन्तु विद्यमान हैं। उत्तरांचल आन्दोलन - उत्तरांचल को अलग राज्य की मान्यता देने को लेकर उत्तरांचल आन्दोलन सन् १९५७ में प्रारंभ हुआ। उत्तरांचलवासियों की मांग है कि कई राज्य ऐसे हैं जिनका क्षेत्रफल और जनसंख्या प्रस्तावित उत्तरांतल राज्य से काफी कम है। इसके अतिरिक्त पहाड़ों का दुर्गम जीवन और पिछड़े होने की वजह से इस क्षेत्र का संपूर्ण विकास नहीं हो पा रहा है। अत: उत्तराखण्ड को उत्तर प्रदेश से अलग करके उसे सम्पूर्ण राज्य का दर्जा मिलना चाहिए। हालांकि उत्तराखण्ड राज्य बनाये जाने के टिहरी के पूर्व नरेश मानवेन्द्र शाह के १९५७ के आन्दोलन से पूर्व ही १९५२ में कम्युनिस्ट नेता पी.सी. जोशी ने पर्वतीय क्षेत्र को स्वायता देने की सर्वप्रथम मांग रखी थी। १९६२ को चीन के साथ युद्ध के समय इस आन्दोलन को राष्ट्रहित में स्थगित कर दिया गया था, बाद में १९७९ में उत्तरांचल क्रान्ति दल (उक्रांद) का गठन मसूरी में हुआ, १२ वर्ष के आन्दोलन के बाद १२ आगस्त १९९१ को उत्तर प्रदेश की विधान सभा ने उत्तरांचल राज्य का प्रस्ताव पास कर केन्द्र सरकार की स्वीकृति के लिए भेजा गया। २४ आगस्त १९९४ को उत्तर प्रदेश विधान सभा में एक बार पुन: उत्तराखण्ड राज्य का प्रस्ताव पास करके केन्द्र सरकार को मंजूरी के लिए भेजा गया। उत्तर में हिमाच्छादित पर्वत श्रंखला, दक्षिण में दून और तराई-भाबर के घने जंगल, पूर्व में सदानीरा काली और पश्चिम में टोंस नदियों की भौगोलिक परिधि में स्थित उत्तरांचल नाम से ज्ञात मध्य हिमालय का प्रदेश एक सांस्कृतिक क्षेत्र माना जाता है। इस प्रान्त का नाम कूर्माचल या कुमाऊँ होने के विषय में यह किम्वदन्ती कुमाउँ के लोगों में प्रचलित है कि जब विष्णु भगवान् का दूसरा अवतार कूर्म अथवा कछुवे का हुआ, तो वह अवतार कहा जाता है कि चंपावती नदी के पूर्व कूर्म पर्वत में जिसे आजकल कांड़देव या कानदेव कहते हैं, ३ वर्ष तक खड़ा रहा। उस समय हाहा हूहू देवतागण तथा नारदादि मुनीश्वरों ने उसकी प्रशंसा की। उस कूर्म (कच्छप)-अवतार के चरणों का चिन्ह पत्थर में हो गया और वह अब तक विद्यमान होना कहा जाता है। तब से इस पर्वत का नाम कूर्माचल (कूर्मअअचल) हो गया। कूर्माचल का प्राकृत रुप बिगड़ते-बिगड़ते 'कूमू' बन गया और यही शब्द भाषा में 'कुमाऊँ' में परिवर्तित हो गया। पहले यह नाम चंपावत तथा उसके आसपास के गाँवों को दिया गया। तत्पश्चात काली नदी के किनारे के प्रान्त-चालसी, गुमदेश, रेगङू, गंगोल, खिलफती और उन्हीं से मिली हूई ध्यानिरौ आदि पट्टियाँ भी काली कुमाऊँ नाम से प्रसिद्ध हुई। ज्यों-ज्यों चंदों का राज्य-विस्तार बढ़ा, तो कूर्माचल उर्फ़े कुमाऊँ इस सारे प्रदेश का नाम हो गया। सब लोग में यही बात प्रचलित है कि कुमाऊँ का नाम कूर्मपर्वत के कारण पड़ा, पर ठा. जोधसिंह नेगीजी 'हिमालय-भ्रमण' में लिखते हैं - "कुमाऊँ के लोग खेती व धन कमाने में सिद्धहस्त हैं। वे बड़े कमाउ हैं, इससे इस देश का नाम कुमाउँ हुआ"। काली कुमाऊँ का नाम काली नदी के कारण नहीं, बल्कि कालू तड़ागी के नाम से पड़ा, जो किसी समय चम्पावत में राज्य करता था। इन तथ्यों को स्वीकार करना है कि किसी भू-प्रदेश का नाम किसी राजा के नाम से प्रचलित होना सार्वदेशिक नियम नहीं हैं। किसी प्रदेश या भूभाग का नाम किसी कारण से अधिक प्रसिद्ध होते हैं। देवदारु और बाँझ की घनी, काली झाड़ियों से भी इसका विशेषण 'काली' गया है। चंद राजाओं के समय ऐसा भी हमें मालूम हुआ है कि कुर्माचल में तीन शासन मंडल थे - १. काली कुमाऊँ जिसमें काली कुमाऊँ के अतिरिक्त सारे, सीरा अस्कोट भी शामिल थे। २. अल्मोड़ा - जिसमें सालम, बारामंडल पाली तथा नैनीताल के वर्तमान पहाड़ी इलाके थे। ३. तराऊ भावर का इलाका या माल। ये शासन मंडल उस समय थे, जब चंद-राज्य चरम सीमा को पहुँच गया था। कुमाऊँ को हूणदेश वाले 'क्युनन' अँग्रेज 'कमाऊन' (कहसोदल), देशी लोग 'कमायूं' यहाँ को रहने वाले 'कुमाऊँ' और संस्कृतज्ञ 'कूर्माचल' कहते हैं। खास काली कुमाऊँ में चंपावत का नाम 'कुमू' कहा जाता है। वहाँ अब भी लोग चंपावत को 'कुमू' कहते है। |
उत्तरांचल एक परिचय
उत्तर प्रदेश से अलग किये गये नए प्रांत उत्तरांचल ८ नवम्बर २००० को अस्तित्व में आया। इस राज्य की राजधानी देहरादून है। उत्तरांचल अपनी भौगोलिक स्थिता, जलवायु, नैसर्गिक, प्राकृतिक दृश्यों एवं संसाधनों की प्रचुरता के कारण देश में प्रमुख स्थान रखता है। उत्तरांचल राज्य तीर्थ यात्रा और पर्यटन की दृष्टि से विशेष महत्व रखता है। यहाँ चारों धाम बद्रीनाथ, केदारनाथ, यमनोत्री और गंगोत्री हैं। इस चार धाम यात्रा मार्ग पर कई दर्शनीय स्थल हैं। पंचप्रयाग के नाम से प्रसिद्ध पाँच अत्यन्त पवित्र संगम स्थल यहीं स्थित है। ये हैं विष्णु, प्रयाग, नंदप्रयाग, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग व देवप्रयाग। इसके अलावा सिक्खों के तीर्थस्थल के रुप में हेमकुण्ड साहिब भी विशेष रुप से महत्वपूर्ण है।
उत्तरांचल
जिले - १३
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